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बृहत्कल्पभाष्यम् ५०८८.परधम्मिया वि दुविहा, लिंगपविट्ठा तहा गिहत्था य। का अपहरण करता है तो चतुर्गुरुक, आकर्षण करने पर
तेसिं तिण्णं तिविहं, आहारे उवधि सच्चित्ते॥ षड्गुरुमास, व्यवहार न्यायपालिका में ले जाने पर छेद, __ परधार्मिक दो प्रकार के होते हैं-लिंगप्रविष्ट और व्यवहार में यदि वह पश्चात्कृत-पराजित हो जाता है तो गृहस्थ। इन सबका स्तैन्य तीन-तीन प्रकार का होता है- मूल, चौराहे आदि पर 'यह शिष्य को चुराने वाला आहार विषयक, उपधि विषयक और सचित्त विषयक। है'-ऐसी उद्दहना (कलंक लगने) पर, हाथ पैर आदि काटे ५०८९.भिक्खूण संखडीए, विकरणरूवेण भुंजती लुद्धो।। जाने पर नौवां अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त आता है। राजा द्वारा
आभोगण उद्धंसण, पवयणहीला दुरप्प ती॥ अपद्रावित अथवा देशनिष्काशन किए जाने पर अथवा कोई मुनि बौद्ध भिक्षुओं की संखडी में विकरणरूप-लिंग राजा एक साधु पर अथवा अनेक साधुओं पर प्रद्विष्ट हो विवेक कर भोजन करता है। यदि कोई उसे उपलक्षित कर जाए तो पारांचिक तथा उद्दहन और व्यंगन (हाथ, पैर आदि लेता है तो चतुर्लघु और यदि उसकी निर्भर्त्सना होती है तो काटने) करने पर-इन दोनों में अनवस्थाप्य तथा दोनों चतुर्गुरु। वे प्रवचन की हीलना करते हैं। वे कहते हैं ये दुष्ट अपद्रावण और देशनिष्काशन करने पर पारांचिक प्रायश्चित्त लोग भोजन के लिए ही प्रव्रजित होते हैं।
आता है। ५०९०.गिहवासे वि वरागा, धुवं खु एते अदिट्ठकल्लाणा। ५०९५.खुडू व खुड्डियं वा, णेति अवत्तं अपुच्छियं तेणे। गलतो णवरि ण वलितो, एएसिं सत्थुणा चेव॥
वत्तम्मि णत्थि पुच्छा, खेत्तं थामं च णाऊणं॥ गृहवास में भी ये गरीब ही थे। निश्चित ही इन्होंने अपना जो मुनि क्षुल्लक अथवा क्षुल्लिका जो अव्यक्त है, उसको कल्याण नहीं देखा है। इनके तीर्थंकरों ने इनके गलों को नहीं उसके संबंधी को पूछे बिना ले जाता है वह अन्यधार्मिक दबाया, और सब कुछ कर डाला।
स्तेनकारी होता है। व्यक्त के लिए कोई पुच्छा नहीं है। उसके ५०९१.उवस्सए उवहि ठवेतुं,
क्षेत्र और शक्ति को जानना चाहिए। गतम्मि भिच्छुम्मि गिण्हती लहुगा। ५०९६.एमेव होति तेण्णं, तिविहं गारत्थियाण जं वुत्तं। गेण्हण कड्डण ववहार
गहणादिगा य दोसा, सविसेसतरा भवे तेसु॥ पच्छकडुड्डाह णिव्विसए॥ इसी प्रकार गृहस्थों से संबंधित भी तीन प्रकार कोई भिक्षुक अपने मठ में उपकरण रखकर भिक्षा का स्तैन्य होता है। गृहस्थों के आहार आदि का स्तैन्य के लिए गया। उसके जाने पर यदि उसकी उपधि चुरा करने पर ग्रहण आदि दोष होते हैं। उनसे ये दोष विशेषतर ली जाती है तो चतुर्लघु। वह भिक्षु यदि उस मुनि को होते हैं। ग्रहण करता है तो चतुर्गुरु। राजकुलाभिमुख उसे ५०९७.आहारे पिट्ठाती, तंतू खुड्डादि जं भणित पुव्वं । घसीटता है तो षड्गुरु, व्यवहार करता है तो छेद, पितॄडिय कब्बट्ठी, संछुभण पडिग्गहे कुसला। पश्चात्कृत करता है तो मूल और देश से निष्कासित आहार विषयक-क्षुल्लिका साध्वी पिष्ट आदि चुरा लेती कराता है, उड्डाह करता है तो अनवस्थाप्य-ये प्रायश्चित्त है। कोई मुनि तंतु-वस्त्र आदि चुरा लेता है। कोई क्षुल्लक या विहित हैं।
अक्षुल्लक का अपहरण कर लेता है। यह पहले कहा जा ५०९२.सच्चित्ते खुड्डादी, चउरो गुरुगा य दोस आणादी। चुका है। एक क्षुल्लिका साध्वी गोचरी के लिए एक घर में
गेण्हण कड्डण ववहार पच्छकडुड्डाह निव्विसए॥ गई। बाहर पिष्टपिंडिका रखी गई थी। उसने उनमें से एक सचित्त अर्थात् क्षुल्लक भिक्षु का अपहरण करने पर को अपने पात्र में रख दिया। गृहस्वामिनी ने देख लिया। चतुर्गुरु और आज्ञाभंग आदि दोष। तथा ग्रहण, आकर्षण, उसने कुशलता से उसको अन्य साध्वी को दे दिया। यह भी व्यवहार, पश्चात्कृत, उड्डाह, निर्विषयज्ञापना आदि दोष स्तैन्य है। पूर्ववत् जानने चाहिए।
५०९८.नीएहिं उ अविदिन्नं, अप्पत्तवयं पुमं न दिक्खिंति। ५०९३.गेण्हणे गुरुगा छम्मास कड्डणे छेओ होइ ववहारे। ___ अपरिग्गहो उ कप्पति, विजढो जो सेसदोसेहिं ।।
पच्छाकडम्मि मूलं, उड्डहण विरंगणे नवमं॥ माता-पिता आदि निज पुरुषों की आज्ञा के बिना, अदत्त ५०९४.उद्दावण निव्विसए, एगमणेगे पदोस पारंची। ___ अप्राप्तवय वाले पुरुष को दीक्षित नहीं करना चाहिए।
अणवट्ठप्पो दोसु य, दोसु उ पारंचितो होइ॥ अपरिगृहीत अर्थात् अव्यक्त पुरुष यदि शेष दोषों से विप्रमुक्त यदि मुनि सच्चित्त स्तैन्य अर्थात् क्षुल्लक या अक्षुल्लक हो तो उसे प्रव्रजित किया जा सकता है।
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