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चौथा उद्देशक
= ५२७ ५०९९.अपरिग्गहा उ नारी,
है। वह दो प्रकार का है-लौकिक और लोकोत्तर। लौकिक ण भवति तो सा ण कप्पति अदिण्णा। हस्ताताल में पुरुष वध के लिए उद्गीर्ण खड्ग आदि का सा वि य हु काय कप्पति,
गुरुक दंड होता है- अस्सी हजार रुपयों का। प्रहार पड़ने जह पउमा खुड्डमाता वा॥ पर यदि पुरुष नहीं मरा तो दंड की भजना है। यदि मर गया नारी प्रायः अपरिगृहीत नहीं होती, स्वतंत्र नहीं होती, वह तो अस्सी हजार रुपयों का दंड है। यह लौकिकों का दंड है। पिता या पति से परिगृहीत होती है। उसे पिता या पति द्वारा लोकोत्तरिकों का दंड आगे कहूंगा। बिना दिए प्रव्रज्या देना नहीं कल्पता। कोई अदत्त नारी भी ५१०५.हत्थेण व पादेण व अणवठ्ठप्पो उ होति उग्गिण्णे। प्रव्राजनीय होती है, जैसे करकंडु की माता पद्मावती देवी।'
पडियम्मि होति भयणा, उद्दवणे होति चरिमपदं। ५१००.बिइयपदं आहारे, अद्धाणे हंसमादिणो उवही। हाथ से या पैर से अथवा यष्टि-मुष्टि आदि से जो साधु
उवउज्जिऊण पुव्विं होहिंति जुगप्पहाण ति॥ प्रहार करता है, वह अनवस्थाप्य होता है। प्रहार पड़ने पर भी आहार, उपधि और सचित्तविषयक अपवाद यह है। मार्ग यदि नहीं मरता है तो भजना है, अर्थात् वही अनवस्थाप्य है। में जाने के इच्छुक हों अथवा मार्ग-गमन से निवृत्त हुए हों तो मर जाने पर चरमपद अर्थात् पारांचिक होता है। अदत्त भक्तपान भी ले सकते हैं। आगाढ़ कारण में हंस आदि ५१०६.आयरिय विणयगाहण, कारणजाते व बोधिकादीसु। से संबंधित प्रयोग से उपधि का उत्पादन किया जा सकता करणं वा पडिमाए, तत्थ तु भेदो पसमणं च॥ है। पहले ही उपयुज्य-परिभावित कर कि 'यह युगप्रधान इसमें यह अपवादपद है-आचार्य शिष्य को सिखाते होगा' इस दृष्टि से गृहस्थ क्षुल्लकों को या अन्यतीर्थिक समय हस्ताताल भी देते हैं। कारण उत्पन्न होने पर बोधिक क्षुल्लकों का अपहरण किया जा सकता है।
स्तेनों पर भी हस्ताताल का प्रयोग करते हैं। ५१०१.असिवं ओम विहं वा, पविसिउकामा ततो व उत्तिण्णा। हस्तालंब-अशिव आदि के प्रशमन के लिए प्रतिमा
थलि लिंगि अन्नतित्थिग, जातितु अदिण्णे गिण्हंति॥ का पुत्तलक बनाकर अभिचारुकमंत्र का जाप करते हुए, उस क्षेत्र में अशिव हो, अवम दुर्भिक्ष हो, साधु वहां से वहीं प्रतिमा में भेद किया जाता है। उससे उपद्रव शांत हो चल पड़े हों और मार्गगत हों या मार्ग से उत्तीर्ण हो गए हों, जाता है। स्वलिंगियों की जो स्थलिका–देवद्रोणी हो, वहां भोजन की ५१०७.विणयस्स उ गाहणया, कण्णामोड-खडुगा-चवेडाहिं। याचना करते हैं, अन्यतीर्थिकों की स्थलिका में भी याचना सावेक्ख हत्थतालं, दलाति मम्माणि फेडिंतो।। करते हैं, यदि नहीं देते हैं तो जबरन ग्रहण कर लेते हैं। इसी विनय अर्थात् शिक्षा देने के लिए आचार्य शिष्य के कानों प्रकार तंतु की न्यूनता होने पर उपधि की भी चोरी की जा को मरोड़ते हैं--सिर पर ठोले मारते हैं, थप्पड़ भी मारते हैं। सकती है।
आचार्य क्षुल्लक शिष्य के प्रति सापेक्ष होकर मर्मप्रदेशों का ५१०२.नाऊण य वोच्छेदं, पुव्वगते कालियाणुतोगे य।। परिहार करता हुआ हस्ताताल भी देता है। शिष्य पूछता
गिहि अण्णतित्थियं वा, हरिज्ज एतेहिं हेतूहिं॥ है-यह पर-पीड़ाकारक क्रिया अनुमत कैसे है? पूर्वगत या कालिकानुयोग का व्यवच्छेद जानकर गृहस्थ ५१०८.कामं परपरितावो, असायहेतू जिणेहिं पण्णत्तो। या अन्यतीर्थिक के मेधावी क्षुल्लक का स्वयं अपहरण कर आत-परहितकरो पुण, इच्छिज्जइ दुस्सले स खलु॥ लेते हैं।
आचार्य कहते हैं-हम यह मानते हैं कि परपरिताप ५१०३. हत्थाताले हत्थालंबे, अत्थादाणे य होति बोधव्वे। असाता का हेतु है-ऐसा जिनेश्वर देव ने कहा है। परंतु वह ___एतेसिं णाणतं, वोच्छामि अहाणुपुव्वीए॥ परिताप दुःशल अर्थात् वाणी से न समझने वाले अविनीत
हस्ताताल, हस्तालंब और अर्थादान ये तीनों पाठ यहां शिष्य के लिए आवश्यक है। यह आत्म-परहितकर होने के हो सकते हैं। मैं क्रमशः तीनों का नानात्व कहूंगा।
कारण वांछनीय है। ५१०४.उग्गिण्णम्मि य गुरुगो, दंडो पडियम्मि होइ भयणा उ। ५१०९.सिप्पणेउणियट्ठा, घाते वि सहति लोइया गुरुणो।
एवं खु लोइयाणं, लोउत्तरियाण वोच्छामि। ण य मधुरणिच्छया ते, ण होति एसेविहं उवमा॥ हस्त तथा अपने अंगों से आताडनं हस्ताताल कहा जाता शिल्प तथा नैपुण्य-लिपि, गणित आदि कला कौशल १. वृत्तिकार ने यहां क्षुल्लककुमार की माता यशोभद्रा को प्रव्रजित किए जाने का कथन किया है और आवश्यक की हारिभद्रीया वृत्ति पत्र ७०१ का प्रमाण
भी दिया है। (वृ. पृ. १३५९)
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