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________________ ५२८ बृहत्कल्पभाष्यम् लौकिक गुरुओं से सीखते हैं और उनके घातों प्रहारों को भी ५११६.चंगोड णउलदायण, बितितेणं जत्तिए तहिं एक्को। सहन करते हैं। वे प्रहार दारुण होते हैं। उस समय मधुर अण्णम्मि हायणम्मि य, गिण्हामो किं ति पुच्छंति॥ निश्चय-सुन्दर परिणाम वाले नहीं होते। फिर भी शिष्य ५११७.तण-कट्ठ-नेह-धण्णे,गिण्हह कप्पास-दूस-गुलमादी। उनको सहन करता है। अंतो बहिं च ठवणा, अग्गी सउणी न य निमित्तं॥ ५११०.संविग्गो महविओ, अमुई अणुयत्तओ विसेसन्न। उज्जयिनी नगरी में एक अवसन्नाचार्य थे। वे नैमित्तिक उज्जुत्तमपरितंतो, इच्छियमत्थं लहइ साहू॥ थे। वहां दो व्यापारी उन आचार्यों को पूछकर व्यापार करते संविग्न, मार्दविक, अमोचि-गुरु को नहीं छोड़ने वाला, थे। वे आचार्य से पूछते-क्या यह भांड खरीदें या बेचें? गुरु का अनुवर्तक, विशेषज्ञ, उद्युक्त-स्वाध्यायशील, वैयावृत्य इस प्रकार वे धनी हो गए। एक बार आचार्य का भानेज आदि में अपरितान्त-ऐसा मुनि अपनी इष्ट वस्तु पा लेता है। आचार्य के पास आया। वह भोगाभिलाषी था। उसके पास ५१११.बोहिकतेणभयादिसु, गणस्स गणिणो व अच्चए पत्ते। धन नहीं था। उसने आचार्य से धन मांगा। आचार्य ने उसे इच्छंति हत्थतालं, कालातिचरं व सज्जं वा॥ दोनों वणिक् मित्रों के पास भेज दिया। उसने एक वणिक् ___ बोधिक स्तेन आदि का भय उत्पन्न होने पर अथवा गण मित्र से धन मांगा। उसने कहा-क्या शकुनिका रुपये देती और गणी का अत्यंत विनाश की स्थिति प्राप्त होने पर है? (क्या रुपये वृक्ष के लगते हैं)। तब वह दूसरे वणिक् कालातिक्रम से शीघ्र ही हस्तताल की इच्छा करते हैं। के पास गया और रुपयों की याचना की। उसने रुपयों की ५११२.असिवे पुरोवरोधे, एमादीवइससेसु अभिभूता। नौलियां दिखाई और कहा जितनी चाहिए उतनी ले लो। संजायपच्चया खलु, अण्णेसु य एवमादीसु॥ तब उसने उनमें से एक नौली ले ली। ५११३.मरणभएणऽभिभूते, ते णातुं देवतं वुवासंते। दूसरे वर्ष दोनों वणिकों ने आचार्य से पूछा इस वर्ष हम पडिमं काउं मज्झे, विधति मंते परिजवेंतो॥ कौन सा माल खरीदें? आचार्य ने पहले वणिक् से अशिव, पुरावरोध आदि तथा इसी प्रकार के 'वैशस' कहा-तुम इस बार कपास, वस्त्र, गुड़ आदि खरीदो और दुःखों से अभिभूत पौरजनों को यह विश्वास होता है कि उनको घर के भीतर रखो। दूसरे वणिक् से कहा-तुम इस अमुक आचार्य इन दुःखों का प्रशमन कर सकते हैं, बार तृण, काष्ठ, बांस आदि खरीदो और उनको नगर के यह सोचकर वे केवल इन दुःखों के लिए ही नहीं, ऐसे बाहर रखो। दोनों ने वैसा ही किया। उस वर्ष अनावृष्टि अन्यान्य दुःखों के प्रशमन के लिए वे एकत्रित होकर उन हुई। अग्नि का उत्पात हुआ। सारा नगर जल गया। जिस गुरुचरणों की शरण में जाते हैं। तब आचार्य मरणभय से वणिक् ने कपास, वस्त्र आदि का संग्रह किया था, वे सारे अभिभूत उन पौरजनों को, देवता की भांति स्वयं की जल गए और जिसने तृण, काष्ठ आदि खरीदे थे, वे (आचार्य की) पर्युपासना करने वाले जानकर, प्रतिमा सुरक्षित रह गए। जब शकुनीवादक ने आचार्य से इस करके अभिचारुक मंत्रों का जाप करते हुए उस प्रतिमा को विसंवादिता का कारण पूछा तो आचार्य ने कहा-शकुनी मध्य में वींधता है, तब कुलदेवी भाग जाती है, सारा निमित्त नहीं देती। उपद्रव शांत हो जाता है। इस प्रकार का हस्तालंबदायी ५११८.एयारिसो उ पुरिसो, अणवट्ठप्पो उ सो सदेसम्मि। आता है तो तत्काल ही उसको उपस्थापना नहीं देते किन्तु णेतूण अण्णदेसं, चिट्ठउवट्ठावणा तस्स॥ कुछ समय पर्यन्त गच्छ में ही रखकर उसकी परीक्षा की ऐसा पुरुष जो अर्थादानकारी होता है, वह स्वदेश में जाती है। अनवस्थाप्य-महाव्रतों में अनवस्थाप्य होता है, उसे महाव्रत ५११४.अणुकंपणा णिमित्ते, जायण पडिसेहणा सउणिमेव।। नहीं दिए जाते। उसे अन्य देश में ले जाकर वहां उसे दायण पुच्छा य तहा, सारण उब्भावण विणासे॥ उपस्थापना दी जा सकती है। अर्थादान, आचार्य की अनुकंपा, निमित्त के ज्ञाता आचार्य, ५११९.पुन्वन्भासा भासेज्ज किंचि गोरव सिणेह भयतो वा। याचना, प्रतिषेध, शकुनिका का दृष्टांत, रुपयों की नौली न सहइ परीसह पि य, णाणे कंडु व कच्छुल्लो। दिखाना, पूछना, सारणा, उद्भावना और विनाश। इस गाथा पूर्वाभ्यास के कारण उस नैमित्तिक को निमित्त पूछते हैं का विस्तार कथानक तथा निम्न गाथाओं में है। और वह ऋद्धि के गौरव से, स्नेह से या भय से लाभ-अलाभ ५११५.उज्जेणी ओसण्णं, दो वणिया पुच्छियं ववहरंति। का कथन करता है। वह ज्ञान परीषह को सहन नहीं कर भोगाभिलास भच्चय, मुंचंति न रूवए सउणी॥ सकता। जैसे खुजली के रोग से पीड़ित व्यक्ति खुजली किए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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