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चौथा उद्देशक बिना रह नहीं सकता, वैसे ही नैमित्तिक भी निमित्त कहे बिना रह नहीं सकता। ५१२०.तइयस्स दोन्नि मोत्तुं, दव्वे भावे य सेस भयणा उ।
पडिसिद्ध लिंगकरणं, कारणे अण्णत्थ तत्थेव।। तीन पदों-हस्ताताल, हस्तालंब और अर्थादान में से प्रथम दो को छोड़ कर शेष जो अर्थादान है, उसमें द्रव्यतः और भावतः लिंग देने की भजना है। निष्कारण अर्थादानकारी को लिंग देना निषिद्ध है। कारण में अन्यत्र अथवा वहीं लिंग देना अनुज्ञात है। ५१२१.हत्थातालो ततिओ, तस्स उ दो आइमे पदे मोत्तुं।
अत्थायाणे लिंगं, न दिति तत्थेव विसयम्मि॥ हस्ताताल पद तीसरा है। उसके दो आद्य पदों को छोड़ कर अर्थात् अर्थादान वाला पद शेष रहता है। उसके रहते हुए उसी देश में लिंग नहीं देते। वह अर्थादानकारी गृहस्थ या अवसन्न लिंगी हो सकता है। ५१२२.गिहिलिंगस्स उ दोण्णि वि,
ओसन्ने न दिति भावलिंगं तु। दिज्जति दो वि लिंगा,
उवट्ठिए उत्तिमट्ठस्स॥ जो गृहिलिंगी है उसे दोनों-द्रव्यलिंग और भावलिंग उस देश में नहीं दिया जाता। जो अवसन्न है उसके द्रव्यलिंग तो है ही, उसे उस देश में भावलिंग नहीं दिया जाता। दोनों-गृहस्थ और अवसन्न, उत्तमार्थ स्वीकार करने के लिए उद्यत हों तो उन्हें दोनों लिंग उस देश में भी दिए जा सकते हैं। ५१२३.ओमा-ऽसिवमाईहि व, तप्पिस्सति तेण तस्स तत्थेव।
न य असहाओ मुच्चइ, पुट्ठो य भणिज्ज वीसरियं॥ अथवा ये कारण हो सकते हैं अवम-दुर्भिक्ष, अशिव, राजद्वेष, अथवा यह गच्छ का उपग्रह करेगा-इन कारणों से उसी क्षेत्र में उसे लिंग दे देते हैं। उसको अकेला या असहाय नहीं छोड़ा जाता। लोगों के द्वारा निमित्त के विषय में पूछने पर वह कहता है-मैं निमित्त भूल गया हूं। ५१२४.साहम्मिय-ऽन्नधम्मियतेण्णेसु उ तत्थ होतिमा भयणा।
लहुगो लहुगा गुरुगा, अणवट्ठप्पो व आएसा।। साधर्मिकस्तैन्य और अन्यधार्मिकस्तैन्य की प्रायश्चित्त भजना-रचना यह है-आहार का स्तैन्य लघुमास, उपधि का स्तैन्य चतुर्लघु, सचित्त का स्तैन्य चतुर्गुरु। आदेश (मतान्तर) के अनुसार अनवस्थाप्य। ५१२५.अहवा अणुवज्झाओ, एएसु पएसु पावती तिविह।
तेसुं चेव पएसुं, गणि-आयरियाण नवमं तु॥
अथवा जो अनुपाध्याय है-उपाध्याय नहीं है, सामान्य साधु है, वह इन पदों (आहार, स्तैन्य आदि) में तिगुना प्रायश्चित्त प्राप्त करता है। इन्हीं आहार आदि पदों में गणीउपाध्याय तथा आचार्य को नौवां प्रायश्चित्त अनवस्थाप्य प्राप्त होता है। (शिष्य ने पूछा-सूत्र में सामान्यतः अनवस्थाप्य ही कहा है, फिर यह लघुमास आदि तीन प्रकार का प्रायश्चित्त कहां से आया? आचार्य ने कहा-आर्हतों का कथन कहीं भी एकान्तवाद युक्त नहीं होता।) ५१२६.तुल्लम्मि वि अवराहे, तुल्लमतुल्लं व दिज्जए दोण्ह।
पारंचिके वि नवम, गणिस्स गुरुगो उ तं चेव॥ आचार्य और उपाध्याय-दोनों ने तुल्य अपराध का सेवन किया है, परंतु दोनों को तुल्य या अतुल्य प्रायश्चित्त दिया जाता है। पारांचिक प्रायश्चित्त योग्य अपराध करने पर भी उपाध्याय को अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त ही दिया जाता है पारांचिक नहीं और आचार्य को उसी अपराध पर पारांचिक दिया जाता है। ५१२७.अहवा अभिक्खसेवी, अणुवरमं पावई गणी नवम।
पावंति मूलमेव उ, अभिक्खपडिसेविणो सेसा॥ अथवा जो गणी-उपाध्याय साधर्मिकस्तैन्य आदि का बार-बार प्रतिसेवना करता है, उससे उपरत नहीं होता, उसको नौवां अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त आता है और शेष मुनि जो बार-बार प्रतिसेवना करते हैं, उन्हें मूल प्रायश्चित्त प्राप्त
५१२८.अत्थादाणो ततिओ, अणवट्ठो खेत्तओ समक्खाओ।
गच्छे चेव वसंता, णिज्जूहिज्जंति सेसा उ॥ अर्थादान क्षेत्रतः तीसरा अनवस्थाप्य है। वह क्षेत्रतः समाख्यात है। उस व्यक्ति को उस क्षेत्र में उपस्थापना नहीं दी जाती। शेष हस्ताताल आदि मुनियों को गच्छ में रहते हुए को भी गच्छ से आलापना आदि पदों से बहिष्कृत कर दिया जाता है। ५१२९.संघयण-विरिय,
आगम-सुत्तत्थविहीय जो समग्गो तु। तवसी निग्गहजुत्तो,
पवयणसारे अभिगयत्थो। ५१३०.तिलतुसतिभागमेत्तो,
वि जस्स असुभो न विज्जती भावो। निज्जूहणाए अरिहो,
सेसे निज्जूहणा नत्थि॥ ५१३१.एयगुणसंपउत्तो, अणवठ्ठप्पो य होति नायव्वो।
एयगुणविप्पमुक्के, तारिसयम्मी भवे मूलं ।।
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