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६१६२.बिइयपयमणाभोगे, सहसा वोत्तूण वा समाउद्दे।
जाणंतो वा वि पुणो, विविंचणट्ठा वदेज्जा वि॥ अपवादपद में अज्ञानवश अथवा सहसा प्राणातिपात आदि विषयकवाद को कहकर आने पर उस मुनि को पुनः वैसा न करने के कथनपूर्वक मिथ्यादुष्कृत प्रायश्चित्त दे। अथवा जानते हुए भी जिस अयोग्य शिष्य को प्रव्रजित किया है उसको निष्काशित करने के लिए उसे प्राणातिपात आदि वाद भी कहा जा सकता है, जिससे वह उद्वेलित होकर स्वयं चला जाए।
खाणुपभिनीहरण-पदं
निग्गंथस्स य अहेपाईसि खाणू वा कंटए वा हीरे वा सक्करे वा परियावज्जेज्जा, तं च निग्गंथे नो संचाएज्जा नीहरित्तए वा विसोहेत्तए वा, तं निग्गंथी नीहरमाणी वा विसोहेमाणी वा नाइक्कम॥
(सूत्र ३) निग्गंथस्स य अच्छिंसि पाणे वा बीए वा रए वा परियावज्जेज्जा, तं च निग्गंथे नो संचाएज्जा नीहरित्तए वा विसोहेत्तए वा, तं निग्गंथी नीहरमाणी वा विसोहेमाणी वा नाइक्कमइ॥
(सूत्र ४) निग्गंथीए य अहेपायंसि खाणू वा कंटए वा हीरए वा सक्करे वा परियावज्जेज्जा, तं च निग्गंथी नो संचाएज्जा नीहरित्तए वा विसोहेत्तए वा, तं च निग्गंथे नीहरमाणे वा विसोहेमाणे वा नाइक्कमइ॥
(सूत्र ५) निग्गंथीए अच्छिंसि पाणे वा बीए वा रए वा परियावज्जेज्जा, तं च निग्गंथी नो संचाएज्जा नीहरित्तए वा विसोहेत्तए वा, तं च निग्गंथे नीहरमाणे वा विसोहेमाणे वा नाइक्कमइ॥
(सूत्र ६)
=बृहत्कल्पभाष्यम् ६१६३.पायं गता अकप्पा, इयाणि वा कप्पिता इमे सुत्ता।
आरोवणा गुरु त्ति य, तेण तु अण्णोण्ण समणुण्णा॥ प्रायः अकल्पिक सूत्र अर्थात् निषेध प्रतिपादक सूत्र इस अध्ययन में संपन्न हो गए। आगे कल्पिक सूत्रों का प्रतिपादन है। 'वा' शब्द का तात्पर्यार्थ है-सूत्र में अनुज्ञा देकर अर्थतः प्रतिषेध करना। यहां एक प्रश्न है कि सूत्र में ही अनुज्ञा क्यों दी? भाष्यकार कहते हैं कि आरोपणा गुरुक होती है इसलिए परस्पर (निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी) समनुज्ञा सूत्रों में की गई है। ६१६४.जह चेव य पडिसेहे, होति अणुन्ना तु सव्वसुत्तेसु।
तह चेव अणुण्णाए, पडिसेहो अत्थतो पुव्वं ।। सूत्रतः अनुज्ञात का अर्थतः प्रतिषेध क्यों? जैसे सूत्रपदों से प्रतिषेध किया जाता है तो सभी सूत्रों में अर्थतः उसकी अनुज्ञा होती है। वैसे ही जिन सूत्रों में अनुज्ञा की गई है तो पहले अर्थतः प्रतिषेध था, इसलिए अनुज्ञा की जाती है। ६१६५.तट्ठाणं वा वुत्तं, निग्गंथो वा जता तु ण तरेज्जा।
सो जं कुणति दुहट्टो, तदा तु तट्ठाणमावज्जे॥ अथवा दूसरे मुनि पर अभ्याख्यान करने वाला मुनि यदि अपने अभ्याख्यान को प्रमाणित नहीं कर पाता तो कहा गया है कि उसे वह स्थान प्रायश्चित्त प्राप्त होता है जिस तथ्य का उसने अभ्याख्यान लगाया है। यदि निर्ग्रन्थ अपने पैर में लगे कांटे को नहीं निकाल सकता और निर्ग्रन्थी उसका नीहरण नहीं करती है तो पीड़ित निर्ग्रन्थ जो आत्मविराधना और संयमविराधना करता है उसका स्थान-प्रायश्चित्त उस निर्ग्रन्थी को भी प्राप्त होता है। ६१६६.पाए अच्छि विलग्गे, समणाणं संजएहि कायव्वं ।
समणीणं समणीहिं, वोच्चत्थे होति चउगुरुगा॥ श्रमण के पैरों में कांटा लग जाए अथवा आंख में कणुक आदि गिर जाए तो श्रमण ही उसका नीहरण करें। श्रमणियों का श्रमणियां करें। व्यत्यास करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। ६१६७.अण्णत्तो च्चियं कुंटसि, अण्णत्तो कंटओ खतं जातं।
दिलृ पि हरति दिद्विं, किं पुण अहिट्ठ इतरस्स। एक संयती संयत के कंटक का नीहरण करते समय कंटक वाले स्थान को छोड़कर अन्यत्र अन्यत्र खोदती है। साधु ने कहा-तुम अन्यत्र खोद रही हो, कंटक अन्यत्र है। खोदने से मेरे घाव हो गया है। संयती बोली-भुक्तभोगिनी स्त्री ने अनेक बार पुरुषलिंग को देखा है फिर भी वह (लिंग) दृष्टि का हरण करता है, बार-बार उसे देखने का मन हो ही
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