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छठा उद्देशक है-गृहस्थों को पूछ लो। उनको पूछने पर वे निषेध करते हैं। ६१५७.खरओ त्ति कहं जाणसि, देहायारा कहिंति से हंदी!। पूछने पर षड्लघु, निषेध करने पर षड्गुरु। साधु भी आकर छिक्कोवण उब्भंडो, णीयासी दारुणसभावो। कहते हैं-रात्निक ने मैथुन की प्रतिसेवना नहीं की। अवम को एक मुनि ने आचार्य से कहा-यह रत्नाधिक साधु छेद। अवम यदि कहता है कि गृहस्थ अलीक कहते हैं या खरक दास है। आचार्य ने पूछा-तुमने कैसे जाना? उसने सत्य ? उसको तब मूल। अवम यदि कहता है ये गृहस्थ कहा-इसके ज्ञातिजनों ने मुझे कहा तथा इसके शरीर के और साधु मिले हुए हैं, तब उसे अनवस्थाप्य। यदि कहे-ये आकार (कुब्जता आदि) उसके दासत्व को कहते हैं। तथा सब प्रवचन के बाह्य हैं, तब पारांचिक।
यह 'छिक्कोवण' शीघ्रकोपन है, 'उभंड'-असंवृतपरिधान६१५३. तइओ त्ति धं जाणसि, दिट्ठा णीया से तेहि मी वुत्तो। वाला है, नीचे आसन में बैठने वाला तथा दारुण स्वभाव
वट्टति ततिओ तुभं, पव्वावेतुं मम वि संका॥ वाला है। ६१५४.दीसति य पडिरूवं, ठित-चंकम्मित-सरीर-भासाहि। ६१५८.देहेण वा विरूवो, खुज्जो वडभो य बाहिरप्पादो।
बहुसो अपुरिसवयणे, सवित्थराऽऽरोवणं कुज्जा। फुडमेव से आयारा, कहिंति जह एस खरओ त्ति॥ एक साधु ने आचार्य से कहा यह रात्निक मुनि तृतीय यह शरीर से भी विरूप है-कुब्ज है, वडभ है और वेद अर्थात् नपुंसक है। आचार्य ने पूछा-यह कैसे जाना? बाह्यपाद वाला है। इसके शरीर का आकार यह स्पष्टरूप से उसने कहा-मैंने इसके निजक-स्वजनों को देखा और उनसे बता रहा है कि यह खरक है, दास है। मिला। उन्होंने मुझसे पूछा- क्या तृतीयवेद को प्रव्रजित करना ६१५९.केइ सुरूव दुरूवा, खुज्जा वडभा य बाहिरप्पाया। कल्पता है? तब मेरे मन में शंका हुई। इसका प्रतिरूप न हु ते परिभवियव्वा, वयणं व अणारियं वोत्तुं। नपुंसक के अनुरूप है। इसका बैठना, चलना, शरीर के आचार्य ने कहा-संसार में कुछ लोग सुरूप होते हैं और हावभाव तथा भाषा लक्षण भी नपुंसक जैसे हैं। इस प्रकार कुछ कुरूप होते हैं, कुछ कुब्ज, वडभ और बाह्यपाद वाले अपुरुषवचन अर्थात् नपुंसकवाद में विस्तारसहित आरोपणा होते हैं। किन्तु इनका परिभव-तिरस्कार नहीं करना चाहिए। करता है।
इनके प्रति अनार्य वचन जैसे-'यह दास है' आदि नहीं ६१५५.वच्चति भणाति आलोय निकाए पुच्छिए निसिद्धे य। बोलना चाहिए।
साहु गिहि मिलिय सव्वे, पत्थारो जाव वयमाणे॥ ६१६०.वच्चति भणाति आलोय निकाए पुच्छिए निसिद्धे य। ६१५६.मासो लहुओ गुरुओ,
साह गिहि मिलिय सव्वे, पत्थारो जाव वयमाणे॥ चउरो लहुगा य होति गुरुगा य। ६१६१.मासो लहुओ गुरुओ, छम्मासा लहु गुरुगा,
चउरो लहुगा य होति गुरुगा य। छेदो मूलं तह दुगं च॥
छम्मासा लहु गुरुगा,
छेदो मूलं तह दुगं च॥ वह अवमरात्निक अकेला प्रतिश्रय में आकर गुरु को अवमरात्निक आचार्य के पास आता है, मासलघु। कहता है-यह राशिक है। इसके ज्ञातिजनों ने मुझे कहा है। कहता है-यह रात्निक मुनि दास है। उसे मासगुरु। गुरु उसे गुरुमास। गुरु ने कहा-आर्य! सम्यग् आलोचना करो। रात्निक को कहते हैं-आर्य! सम्यग् आलोचना करो। क्या बताओ, क्या तुम तृतीयराशि में हो। रात्निक ने कहा-यह तुम दास हो? रात्निक ने कहा नहीं, मैं दास नहीं हूं। ऐसा मेरे ऊपर झूठा आरोप है। अभ्याख्यानदाता को चतुर्लघु। कहने पर अभ्याख्यानदाता के चतुर्लघु। अवमरात्निक पुनः पुनः पूछने पर रात्निक वही दोहराता है। अवम को चतुर्गुरु। पूछता है, रात्निक वही दोहराता है। अवम के चतुर्गुरु। अवम कहता है-गृहस्थों को पूछ लो। उनको पूछने पर वे अवम कहता है-गृहस्थों को पूछ लो। उनको पूछने पर वे निषेध करते हैं। पूछने पर षड्लघु, निषेध करने पर षड्गुरु। निषेध करते हैं। पूछने पर षड्लघु, निषेध करने पर अन्य साधु भी कहते हैं-यह तृतीयराशि में नहीं है। अवम को षड्गुरु। साधु भी आकर कहते हैं यह दास नहीं है। अवम छेद। अवम यदि कहता है-गृहस्थ अलीक कहते हैं। उसे मूल को छेद। अवम यदि कहता है कि गृहस्थ अलीक कहते हैं और यदि कहता है-साध और गृहस्थ परस्पर मिले हुए हैं या सत्य? उसको तब मूल। अवम यदि कहता है ये तो अनवस्थाप्य। यदि कहे कि ये सब प्रवचन से बाह्य हैं तब गृहस्थ और साधु मिले हुए हैं, तब उसे अनवस्थाप्य। यदि पारांचिक।
कहे ये सब प्रवचन के बाह्य हैं, तब पारांचिक।
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