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________________ ४९८ ४८३४. सुणमाणा वि न सुणिमो, सज्झाय-ज्झाण निच्चमाउत्ता । सावन्नं सोऊण वि, ण हुन्भाऽऽइक्खि जतिणो ।। हम सदा स्वाध्याय - ध्यान में लीन रहते हैं अतः वार्त्ताओं को सुनते हुए भी नहीं सुनते। सावद्य बातों को सुनकर भी मुनि उन्हें बता नहीं सकते। ( मुनि कानों से बहुत सुनता है, आंखों से बहुत कुछ देखता है। किन्तु सारा देखा हुआ या सुना हुआ वह भिक्षु किसी को कह नहीं सकता, वह न कहे।) ४८३५. भत्तट्टणमालोए, मोत्तूणं संकिताई ठाणाई । सच्चित्ते पडिसेधो, अतिगमणं दिवाणं ॥ भक्तार्थन अर्थात् भोजन प्रकाश में होता है। जो शंकित स्थान हों वहां भोजन न करे। जो सचित्त अर्थात् शैक्ष प्रव्रज्या लेना चाहे उसे प्रव्रजित न करे। आते समय द्वारपाल ने जिनको देखा है उनका ही अतिगमन- प्रवेश होता है। ४८३६. सावग-सण्णिद्वाणे, ओतवितेकतर इतर भत्तङ्कं । तेसऽसती आलोए, वड्डग कुरुयादि स च्चेव ॥ जहां श्रावक और श्राविका - दोनों साधु सामाचारी कुशल हाँ वहां भोजन करे। उनके अभाव में एक भी कुशल हो तो वहां भोजन करे। एक भी यदि खेदज्ञ न हो तो अखेद श्रावकों के समक्ष भी भोजन ले। उनके अभाव में अटवी में, आलोक में, अशंकनीय प्रदेश में भोजन करे। वड्डग और कुरुकुच आदि में यही यतना है। ४८३७. भत्तयि बाहाडा, पुणरवि घेत्तुं अतिंति पज्जत्तं । अणुसद्वी दारद्वे, अण्णो वऽसतीय जं अंतं ॥ इस प्रकार भक्तपान पर्याप्त ग्रहण कर भोजन कर लेने के पश्चात् 'वाहाडित' - भुक्तन्यूनभाजन वाले वे मुनि नगर में प्रवेश करते हैं। द्वारपाल यदि भोजन मांगता है तो उसे अनुशिष्टि दे। यदि अन्य कोई देता है तो उसका निषेध न करे । उसके अभाव में जो अन्त प्रान्त हो उसे दे । ४८३८. रुद्धे वोच्छिन्ने वा दारडे दो वि कारणं दीवे इहरा चारियसंका, अकालओखंदमादीसु ॥ द्वार रुद्ध हो या व्यवच्छिन्न हो तो साधु द्वारपाल के आगे दोनों आभ्यन्तर और बाह्य कारणों को बताते हैं। यदि नहीं बताते हैं तो चारिका की आशंका हो सकती है तथा अकाल और घाटी आदि से संबंधित चारिका की आशंका होती है। ४८३९. बाहिं तु वसिउकामं, अतिणेंती पेल्लणा अणेच्छते । गुरुगा पराजय जये, बितियं रुद्धे व वोच्छिण्णे ॥ बाहर निर्गत कोई साधु सोचता है मैं मुक्त हो गया, अब Jain Education International बृहत्कल्पभाष्यम् मैं बाहर ही रह जाऊं । उसे दूसरा मुनि कहता है - ऐसा करना हमें नहीं कल्पता वे उस मुनि को प्रेरित कर या बलात् नगर में प्रवेश कराते हैं। कदाचित् अभ्यन्तर रहने वालों की पराजय और बाहर वालों की विजय हो जाए तो आशंका के कारण प्रस्तारदोष - विनाश हो सकता है। उसका अपवाद पद यह है - बाहर निर्गत मुनियों के लिए यदि नगर के सारे द्वार अवरुद्ध हों या व्यवच्छिन्न हों तो वहां रहना शुद्ध है । से गामंसि वा जाव सन्निवेसंसि वा कप्पs निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सव्वओ समंता सकोसं जोयणं ओग्गहं ओगिण्हित्ताणं चिट्ठित्तए परिहरित्तए । -त्ति बेमि ॥ (सूत्र ३४) ४८४०. गामाइयाण तेसिं, उग्गहपरिमाणजाणणासुत्तं । कालस्स व परिमाणं, वुत्तं इहवं तु खेत्तस्स ॥ अनन्तर सूत्रोक्त ग्राम आदि का कितना अवग्रह होता है। यह ज्ञापित करने के लिए प्रस्तुत सूत्र का प्रारंभ हुआ है। पूर्व सूत्रों में काल का परिमाण बताया गया है। प्रस्तुत सूत्र में क्षेत्र का परिमाण कथित है। ४८४१. उडुमहे तिरियं पि य, सकोसगं होइ सव्वतो खेतं । इंदपदमाइएसुं, छद्दिसि सेसेस चउ पंच ॥ ऊर्ध्व दिशा, अधोदिशा और तिर्यक् दिशा में चारों ओर से सक्रोश योजन क्षेत्र का अवग्रह होता है । इन्द्रपद अर्थात् अजाग्रपदगिरि के चारों ओर ग्राम हैं। उन मध्यम श्रेणी वाले ग्राम में स्थित मुनियों के छहों दिशाओं में क्षेत्र होता है। शेष पर्वतों के चार या पांच दिशाओं में सक्रोश योजन क्षेत्र अवराह होता है। ४८४२. एगं व दो व तिन्नि व, दिसा अकोसं तु सव्वतो वा वि। सव्वत्तो तु अकोसे, अग्गुज्जाणाओ जा खेत्तं ॥ एक, दो, तीन दिशाओं में पर्वत आदि के व्याघात से चारों ओर से अक्रोश क्षेत्र अवग्रह होता है। वहां सर्वतः अक्रोश गत ग्राम आदि में ग्रामोद्यान तक क्षेत्र होता है, उससे आगे अक्षेत्र होता है। ४८४३. संजम - आयविराहण, जत्थ भवे देह - उवहितेणा वा । तं खलु ण होइ खेत्तं उग्धेयव्वं च किं तत्थ ॥ जहां ग्राम आदि में संयमविराधना और आत्मविराधना होती है, जहां शरीर स्तेन और उपधि स्तेन होते हैं, वह क्षेत्र For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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