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________________ तीसरा उद्देशक का उपदेश देकर भेज देते हैं ये तरुण मुनि के तीन प्रकार हैं। मध्यम और स्थविर मुनियों के भी ये ही तीन-तीन प्रकार होते हैं। ये कुल मिलाकर नौ हो जाते हैं। यह पहला नवक है। ४६६७. पढमदिणे सग्गामे, एगो णवगो बितिज्जए बितिओ। एमेव परम्गामे, पढमे बितिए य बे णवगा ॥ यह प्रथम नवक प्रथम दिन स्वग्राम में प्रव्रजित कर भेजने पर होता है। दूसरे दिन इसी प्रकार दूसरा नवक। इस प्रकार स्वग्राम में दो नवक होते हैं। इसी तरह परग्राम में भी दो नवक होते हैं। अतः ये चार नवक मुंडित कर भेजने पर होते हैं। ४६६८. एमेव अमुंडस्स वि, चउरो णवगा हवंति कायव्वा । एमेव य इत्थीण वि, णवगाण चउक्कगा दुण्णि ॥ इसी प्रकार अमुंडित कर भेजने पर भी चार नवक होते हैं। इस प्रकार ये दो नवक-चतुष्टय पुरुषों के कहे गए हैं। स्त्रियों के भी दो नवक चतुष्टय कर्त्तव्य हैं। यदि क्षेत्रिकों के पास न भेजकर स्वयं स्वीकार करते हैं तो उसका प्रायश्चित्त है चतुर्गुरुक। ४६६९. सागारियर्सकाए, णिच्छति घिच्छंति वा सयं मा मे ते व व अदनं पुणरवि, पच्चेहममंडितो एवं ॥ शैक्ष अपने गांव में प्रव्रज्या ग्रहण करना इसलिए नहीं चाहता कि सागारिक-सज्ञातकों की उसे आशंका रहती है कि कहीं वे उसे उत्प्रव्रजित न कर दें अथवा ये मुनि मुझे प्रव्रजित कर अपने ही पास न रख लें यदि मैं उन साधुओं को न देख लूं तो मैं पुनः प्रत्यागमन कर लूंगा- इन सारे कारणों से वह अपने आपको मुंडित नहीं करता। अतः अमंडित को भेजते हैं। ४६७०. एसेब य णवगकमो सदं एवं व होइ जाणते। जो पुण कित्तिं जाणति, ण ते वयं सिस्सते तस्स ॥ जो शैक्ष शब्द या रूप को जानता है उसके प्रति ही यह नवक का क्रम होता है जो शैक्ष केवल कीर्ति को जानता है उसे वे मुनि कहते हैं-हम नहीं जानते कि तुम किसके पास प्रव्रजित होना चाहते हो । ४६७१. किं व न कप्पइ तुब्भं, दिक्खेउं तेसि तं ण अम्हं ति । तत्थ वि सो चेव गमो, णवगाणं जो पुरा भणितो ॥ तब वह शैक्ष कहता है- क्या आपको प्रव्रज्या देना नहीं कल्पता ? तब वे साधु कहते हैं तुम उनके ही आभाव्य हो, हमारे नहीं तब वह कहता है यदि ऐसा है तो आप मुझे १. श्वः कार्यमय कुर्वीत पूर्वा अपराहिकम्। कोहि तद्वेत्ति कस्याद्य, मृत्युसेनाऽापतिष्यति ॥ ( वृ. पृ. १२६० ) Jain Education International ४८९ प्रव्रज्या देकर वहां भेज दें अथवा अमुंडित ही मुझे विसर्जित कर दें। इसमें भी वही क्रम है, जो पूर्व में नवक विषयक कहा गया है। ४६७२. विप्परिणया वि जति ते, अम्हे तुझं भणतऽलं तेहिं । तह वि य ण वि ते तेसिं, अव्वाहयमादिया होंति ॥ वे अव्याघात से वाताकृत पर्यन्त शैक्ष पूर्व साधुओं से विपरिणत होकर कहते हैं-हम आपके पास प्रव्रज्या ग्रहण करेंगे, पूर्व साधुओं से अब कोई प्रयोजन नहीं। ऐसा कह पर भी वे सारे अव्याघात आदि शैक्ष उनके नहीं होते, वे पूर्व साधुओं के ही आभाव्य होते हैं। ४६७३. एहिंति पुणो दाई, पुट्ठे सिद्वंसि ईय भणमाणा । बहुदोसे माणुस्से, अणुसासण णवग तह चेव ॥ शैक्ष आगंतुक साधुओं के पास आकर पूछते हैं - वे साधु कहां गए? अमुक गांव में गए हैं, ऐसा कहने पर वे कहते हैं-वे पुनः यहां आएंगे तब हम उनके पास दीक्षित हो जायेंगे । इस प्रकार कहने पर उनको कहना चाहिए - मनुष्य जन्म बहुत अंतराय वाला है। प्रमाद मत करो। इस प्रकार अनुशासन कर नवक के प्रकार से उनको प्रेषण करना चाहिए । ४६७४. जं कल्ले कायव्यं णरेण अज्जेव तं वरं काउं मच्चू अकलुणहिअओ न हु दीसइ आवयंतो वि ॥ वे साधु उन शैक्षों को कहते हैं मनुष्य को जो कल करना है, उसे आज ही करना श्रेष्ठ है मृत्यु करुणाहीन हृदयवाली होती है, वह कब कैसे आती है, किसी को दिखाई नहीं देती। - ४६७५. तूरह धम्मं काउं, मा हु पमायं खणं पि कुब्वित्था । बहुविग्धो हु मुहुत्तो, मा अवरहं पडिच्छाहि ॥ भव्य प्राणियो ! धर्म करने के लिए जल्दी करो। क्षणभर के लिए प्रमाद मत करो। मुहूर्तमात्र भी विघ्न बहुल होता है इसलिए प्रव्रज्या आदि के लिए अपराह्न की भी प्रतीक्षा मत करो। ४६७६. बहुसो उवट्ठियस्सा, विग्घा उट्ठिति जज्जिय जितो मि । अणुसासण पत्थवणं, णवगा य भवे समुंडियरे ॥ कोई शैक्ष कहता है-मैं अनेक बार प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए उपस्थित हुआ। परंतु नए-नए विघ्न उपस्थित होते रहे। मैं यावज्जीवन विघ्नों से पराजित होता रहा हूं। उसे अनुशासन- शिक्षा देनी चाहिए कि भद्र! अब तेरे चरित्र के आवारक कर्मों का अनुदय है। शीघ्रता से दीक्षा ले लो। क्षेत्रिक आचार्य का इन्तजार मत करो। यह कहकर प्रस्थापना For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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