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बृहत्कल्पभाष्यम् २. दूसरा शैक्ष भी उनको रूप से जानता है, शब्द से किसी को प्रव्रजित किया। वह किसका आभाव्य होगा? वहां
नहीं, क्योंकि वह कभी उपाश्रय में नहीं जाता। शिष्य विषयक दो प्रकार की मार्गणा होती है-सज्ञातक और ३. तीसरे प्रकार का शैक्ष कोई कृषक है। वह पूरा दिन असज्ञातक। प्रतीच्छक शिष्य विषयक मार्गणा एक प्रकार की
अपने खेत में बिताता है और रात्री में लौटते समय होती है-सज्ञातक विषयक। भगवान् द्वारा प्रतिषिद्ध शैक्ष को अथवा प्रभात में पुनः खेत में जाते समय शब्द सुनता प्रव्रजित कर अन्यत्र प्रेषित करने पर क्या विधि है? है, परन्तु वह रूप से परिचित नहीं होता।
संकेतदत्त शैक्ष के लिए क्या विधि होती है? ४. चौथे प्रकार का शैक्ष स्वग्राम में रहता हुआ अथवा (इन सारे तथ्यों का विस्तार से वर्णन आगे की गाथाओं प्रतिवृषभ ग्राम में रहता हुआ न रूप से और न शब्द
में।) से परिचित होता है, परन्तु वह आचार्य की ४६६३. चत्तारि णवग जाणंतगम्मि जाणाविए वि चत्तारि। यशःकीर्ति को सुनता है, उससे वह परिचित होता
अभिधारणम्मि एए, खित्तम्मि विपरिणया वा वि॥
इससे पूर्व चार प्रकार के ज्ञायक शैक्ष बताए गए हैं।' ५. पांचवें प्रकार का शैक्ष वह होता है जो न रूप को (रूप, शब्द आदि को जानने वाले)। प्रत्येक चार प्रेषण
जानता है, न शब्द को जानता है और न यशःकीर्ति विषयक होने पर नवक हो जाते हैं। जो शैक्ष नहीं जानता, को जानता है, परंतु वह घर से निर्विण्ण होकर उसको साधु कहते हैं-तुम हमारे आभाव्य नहीं हो, किन्तु प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता है।
पूर्व साधुओं के आभाव्य हो, इस प्रकार ज्ञापित होने पर भी ४६५८.वायाहडो वि एवं, पंचविहो होइ आणुपुव्वीए। चार नवक होते हैं। अभिधारण का अर्थ है-मन में करना।
एएसिं सेहाणं, पत्तेयं मग्गणा इणमो॥ यदि क्षेत्रिक आचार्य को मन में करके ये अव्याघात आदि वाताहृत शैक्ष अर्थात् आगंतुक शैक्ष भी क्रमशः पांच शिष्य आते हैं और वे विपरिणत होने पर भी क्षेत्रस्वामी के ही प्रकार के होते हैं। इन दसों प्रकार के शैक्षों की, प्रत्येक की, आभाव्य होते हैं। इन द्वारों से मार्गणा-विचारणा होती है।
४६६४.पियमप्पियं से भावं, दट्ठ पुच्छित्तु तस्स साहति। ४६५९.अव्वाघाए पुणो दाई, जावज्जीव पराजिए। कत्थ गता ते भगवं, पुट्ठा व भणंति किं तेहिं।।
पढम-बिइयदिवसेसुं, कहं कप्पो उ जाणते॥ क्षेत्रवासी मुनि विहार कर गए और दूसरे मुनि वहां आ ४६६०.जाणाविए कहं कप्पो, वत्थव्वे वाताहडे ति य। गए। कोई उभयज्ञ शैक्ष प्रव्रजित होने की इच्छा से वहां आता
उज्जू अणुज्जुए या वि, कहं कप्पोऽभिधारणे॥ है। साधु उसके प्रिय-अप्रिय भावों को देखकर पूछते हैं। वह ४६६१.एगग्गामे अतिच्छंते, कहं कप्पो विहिज्जते। सारी बात बताता है। वे कहते हैं वे साधु तो विहार कर
दुविहा मग्गणा सीसे, एगविहा य पडिच्छए॥ गए। वह पूछता है-कहां गए हैं वे? ऐसा पूछने पर वे साधु ४६६२.पडिसेहियवच्चंते, कहं कप्पो विहिज्जइ। कहते हैं-उनसे तुम्हारा क्या प्रयोजन है? तब वह कहता है
संगारदिण्णते यावि, कहं कप्पो विहिज्जइ॥ ४६६५.पव्वइहं ति य भणिते,अमुगत्थ गया वयं ति दिक्खेउ। द्वार इन चार गाथाओं में कथित हैं-अव्याघात, पुणो
तेसि समीवं णेमो, ण य वाहणते तयं सो य॥ दाई-जब वे साधु पुनः आयेंगे तब प्रव्रज्या लूंगा, यावज्जीवन मैं दीक्षा लेना चाहता हूं। तब वे मुनि कहते हैं-वे पराजित, पहले और दूसरे दिन प्रव्रज्या के लिए उपस्थित साधु तो अमुक गांव में चले गए। हम तुमको प्रव्रजित कर ज्ञायक शैक्ष के लिए किस प्रकार से कल्प-विधि होती है। उनके पास ले जायेंगे। वह उनके इस वचन का खंडन नहीं वास्तव्य और वाताहत शैक्ष जो आचार्य के नाम को जानते करता, उसको स्वीकार कर लेता है। यह अव्याघात का हैं, उनका कल्प क्या है? ऋजु आचार्य वह होता है जो इन । उदाहरण है। शैक्षों को पूर्व साधुओं के समीप भेज देता है। इससे विपरीत ४६६६.संघाडग एगेणं, पंथुवएसे व मुंडिए तिण्णि। होता है अऋजु आचार्य। शैक्ष एक या अनेक साधुओं से इइ तरुण मज्झ थेरे, एक्कक्के तिन्नि नव एते॥ प्रव्रज्या-ग्रहण के लिए अभिधारणा कर जाता है तो वहां वे मुनि उसे दीक्षित कर एक संघाटक के साथ क्षेत्रिकों के आभाव्य, अनाभाव्य की विधि क्या है?
पास भेज देते हैं। यदि संघाटक न हो तो एक साधु के साथ किसी ग्राम में क्षेत्रिक साधु हैं। वहां किसी धर्मकथी ने उसे भेजते हैं। यदि यह भी संभव न हो तो उसे अकेले मार्ग १. गाथा ४६५६ तथा ४६५७ में पांच प्रकार के शैक्ष बताए गए हैं। उनमें प्रथम चार ज्ञायक होते हैं।
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