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तीसरा उद्देशक=
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३७१८.निक्कारणे विधीय वि, दोसा ते चेव जे भणिय पुव्विं। हो जाने पर। विचारभूमी में उपद्रव आदि होने पर। पुत्र, पिता
___ वीसत्थाई मुत्तुं, गेलन्नाई उवरिमा उ॥ आदि के कालगत होने पर। आर्यिकाओं के स्वजन के संगम
निष्कारण विधिपूर्वक भी आर्यिका के उपाश्रय में यदि के लिए। आर्यिका के संलेखना, व्युत्सर्जन-भक्तप्रत्याख्यान मुनि जाते हैं तो वे ही पूर्वोक्त दोष प्राप्त होते हैं। विश्वस्त- करने की इच्छा होने पर। किसी आर्यिका के अनशन कर देने विषयक दोषों को छोड़कर जो ग्लान्य आदि विषयक दोष । पर-मुनि आर्यिकाओं के स्थान पर जा सकता है। अथवा होते हैं, वे द्वितीय भंग में संभव हैं।
किसी आर्यिका के दिवंगत हो जाने पर तीन दिन के पश्चात् ३७१९.निक्कारणे विधीय वि, तिट्ठाणे गुरुगो जेण पडिकुटुं। आचार्य उनके स्थान पर जाए।
कारणगमणे सुद्धो, णवरिं अविधीय मासतियं॥ ३७२४.अज्जाणं पडिकुटुं, वसही-संथारगाण गहणं तु। आर्यिका के उपाश्रय में विधिपूर्वक जाने पर भी जो तीन
ओभासिउ दाउं वा, वच्चेज्जा गणहरो तेणं॥ स्थानों में नैषेधिकी का प्रयोग करता है, परन्तु यदि वह मुनि आर्यिकाओं के लिए स्वयं वसति, संस्तारक आदि को निष्कारण वहां जाता है तो उसे मासगुरु का प्रायश्चित्त आता ग्रहण करना प्रतिषिद्धि है। अतः वसति के प्रसंग में गणधर है। क्योंकि निष्कारण जाना प्रतिकुष्ट है। कारणवश जाने पर स्वयं वहां जाते हैं और आर्यिकाओं को संस्तारक आदि वह शुद्ध है। परन्तु यदि वह नैषेधिकीत्रय नहीं करता है तो देते हैं। उसे मासलघुत्रय का प्रायश्चित्त आता है।
३७२५.पडियं पम्हुटुं वा, पलावियं अवहियं व उग्गमियं। ३७२०.कारणतो अविधीए, दोसा ते चेव जे भणिय पुव्विं। उवहिं भाएतुं जे, दाएउं वा वि वच्चेज्जा।
कारणे विधीय ‘सुद्धो, इच्छं तं कारणं किन्न । आर्यिकाओं का कोई उपकरण गिर गया हो, वे कहीं भूल जो कारणवश भी अविधि से प्रवेश करता है तो वे ही गई हों या पानी में बह गया हो या चोरों द्वारा अपहृत हो दोष होते हैं जो पहले कहे गए हैं। कारणवश विधिपूर्वक गया हो और वे उपकरण साधुओं को प्राप्त हो गए हों अथवा प्रवेश करने वाला शुद्ध है। शिष्य ने पूछा-भंते ! मैं जानना अन्य उपधि उत्पादित की हों-उन उपकरणों को विभाग कर चाहता हूं कि वे कारण क्या हैं?
देने के लिए गणधर आर्यिका के उपाश्रय में जाए। ३७२१.गम्मइ कारणजाए, पाहुणए गणहरे महिड्डीए। ३७२६.ओहाणाभिमुहीणं, थिरकरणं काउ अज्जियाणं तु।
पच्छादणा य सेहे, असहुस्स चउक्कभयणा उ॥ गच्छेज्जा पाहुणओ, संघ-कुलथेर-गणथेरो॥ कारण उपस्थित होने पर आर्यिका के उपाश्रय में जाया जो आर्यिकाएं गण को छोड़कर पलायन करने के जा सकता है। प्राघूणक, गणधर, महर्द्धिक, शैक्ष का अभिमुख हैं, उनको पुनः संयम में स्थिर करने के लिए प्रच्छादन, असहिष्णु साधु-साध्वी की चतुर्भंगी। (इस गाथा प्राघुणक जाए। शिष्य ने पूछा-कौन होते हैं प्राघुणक? का विस्तार अगली गाथाओं में।)
आचार्य ने कहा-संघस्थविर, कुलस्थविर और गणस्थविर ३७२२.उवस्सए य संथारे, उवही संघपाहुणे। प्राघुणक होते हैं।
सेहट्ठवणुदेसे, अणुन्ना भंडणे गणे॥ ३७२७.अन्नत्थ अप्पसत्था,होज्ज पसत्था य अज्जिगोवसए। ३७२३.अणप्पज्झ' अगणि आऊ, वीआर पुत्त संगमे। एएण कारणेणं, गच्छेज्ज उवट्ठवेउं जे॥
संलेहण वोसिरणे, वोसटे निट्ठिए तिहं।। अन्यत्र शैक्ष को उपस्थापना देना अप्रशस्त है और आर्यिका के उपाश्रय में मुनि इन कारणों से जा सकता आर्यिका के उपाश्रय में शैक्ष को उपस्थापित करना प्रशस्त है-उपाश्रय, संस्तारक तथा उपधि देने के लिए, साध्वियों माना जाता है। शैक्ष को उपस्थापित करने के प्रयोजन से मुनि को संयम में स्थिर करने के लिए संघप्राघुणकी जाए। शैक्ष आर्यिका के प्रतिश्रय में जा सकता है। की उपस्थापना अथवा स्थापनाकुलों की स्थापना करने के ३७२८.ठवणकुलाई ठवेडं, तासिं ठवियाणि वा निवेएउं। लिए। श्रुत के उद्देश अथवा अनुज्ञा के लिए। कलह का परिहरिउं ठवियाणिं, ठवणाऽऽदियणं व वोत्तुं जे॥ उपशमन करने के लिए। प्रवर्तिनी के कालगत हो जाने पर ___ स्थापनाकुलों को स्थापित करने के लिए अथवा स्थापित गण की चिंता के लिए। किसी आर्यिका के अनात्मवश स्थापनाकुलों का निवेदन करने के लिए, अथवा उन स्थापित (यक्षाविष्ट आदि के कारण) हो जाने पर। आर्यिका की कुलों का परिहार करने के लिए, अथवा पहले जिन कुलों का वसति अग्नि से दग्ध हो जाने पर पानी के पूर से आप्लावित प्रसंगवश परिहार किया गया था, उनमें आदान-ग्रहण किया १. अणप्पज्झ-देशीपदमनात्मवशवाचकम्। (वृ. पृ. १०३३)
२. देखें-गाथा ३७२६।
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