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________________ २२ बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा संख्या विषय ४४५१-४४५४ जो समित है वह नियमतः गुप्त कैसे? इसका समाधान। ४४५५ हाथ आदि की चेष्टाएं भी ईर्यासमिति के अंतर्गत। ४४५६ चंक्रमण के लाभ। ४४५७ अभ्युत्थान करना विकल्पनीय कब? ४४५८ चंक्रमण करते हुए आचार्य का अभ्युत्थान आवश्यक। 'भद्रक भोजिक' का दृष्टान्त। ४४५९ वृषभ मुनियों द्वारा अभ्युत्थान न करने वाले शिष्यों की सारणा नहीं करने पर प्रायश्चित्त। गच्छ में प्रतीच्छक मुनियों के दो प्रकार। ४४६० गच्छ में रहने वाले प्रतीच्छक पंजरभग्न शिष्यों का चिंतन। ४४६१ उद्यतचरण वाले मुनियों का चिंतन तथा पंजरभग्न मुनियों के प्रति उदासीनता। ४४६२ पार्श्वस्थ आदि को छोड़कर आए हुए श्रमण को देखकर अन्य साधुओं में श्रद्धा का भाव वृद्धिंगत। ४४६३ मर्यादा की हानि देखकर संयमाभिमुख श्रमण के दूसरे गच्छ में जाने से होने वाली हानि। ४४६४ कौन सा गच्छ तजनीय ? ४४६५,४४६६ आचार्य आदि का अभ्युत्थान न करने वाले के प्रकारान्तर से प्रायश्चित्त। ४४६७ दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिकादि आवश्यक में आचार्यादि को वंदना न देने पर भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्तों का विधान। ४४६८ आचार्य, वृषभ, भिक्षु और क्षुल्लक के काल और तप से होने वाला विशेषित प्रायश्चित्त का विधान। ४४६९ दैवसिक और रात्रिक में चौदह वंदनक देने की विधि। न देने पर प्रायश्चित्त। आवश्यक बोलते समय विपरीत उच्चारण करने अथवा कम या अधिक पदापद बोलने पर प्रायश्चित्त। ४४७० वंदनक विषयक पचीस आवश्यक न करने पर प्रत्येक का मासलघु। ४४७१-४४९५ वंदनक विषयक अनादृत, स्तब्ध प्रवृद्ध परिपिंडित आदि बतीस दोष। उनका स्वरूप तथा उनसे होने वाला प्रायश्चित्त। ४४९६ आचार्य आदि का कृतिकर्म करने की विधि। अविधि में प्रायश्चित्त। ४४९७ प्रतिक्रमण पूरा होने पर पश्चात् वन्दनविधि। गाथा संख्या विषय उसका प्राचीन स्वरूप। वर्तमान में वंदना की विधि। ४४९८,४४९९ मौलिक वन्दन विधि को बदलने का कारण, शिष्य की शंका। आचार्य का समाधान। ४५००-४५०२ आचार्य से पर्याय ज्येष्ठ होने पर आचार्य को वन्दन करना या नहीं? उसकी विधि तथा आचार्य से रत्नाधिकों का स्वरूप। ४५०३-४४०५ कृतिकर्म किसे करना चाहिए, किसे नहीं ? उसका स्वरूप। श्रेणीस्थित को वन्दन करने की विधि। ४५०६ निश्चयनय के अनुसार चारित्र अध्यवसाय किस समय कौनसा ? आचार्य द्वारा समाधान । व्यवहार का स्वीकरण। ४५०७ अर्हत्-केवली छद्मस्थ मुनि को क्यों और कब तक वन्दन करते हैं ? आचार्य द्वारा उसका समाधान। ४५०८ वह केवली है, यह कैसे जाना जाता है ? उसका उत्तर। ४५०९,४५१० संयमश्रेणी के प्रकार और जीव प्ररूपणा के दस प्रतिद्वार। ४५११ अविभाग परिच्छेद का स्वरूप। ४५१२ चारित्र के प्रदेश कितने? उसका समाधान। ४५१३,४५१४ जीव किस भव में कब और कैसे सिद्ध होता है ? उसका उत्तर। ४५१५ कृतिकर्म किसका आवश्यक ? बाह्य श्रेणी के चार भेद। ४५१६-४५१९ शिष्य की जिज्ञासा-रजोहरण आदि से मुक्त मुनि संयमश्रेणी से निर्गत होता है, पर प्रकट लिंग मुनि संयमश्रेणी से कैसे निर्गत माना जा सकता है। आचार्य द्वारा शर्करा घटों का दृष्टान्त और उनका उपनय। ४५२० संयम से भ्रष्ट होने के विविध कारण। ४५२१-४५२३ मूल गुण का प्रतिसेवी और उत्तरगुण का प्रतिसेवी किस प्रकार कब भ्रष्ट होता है, उसको समझाने के लिए संकर-कचरे, सर्षपशकट, सर्षपमंडप, तैल भावित वस्त्र और मरुक-ब्राह्मण का दृष्टांत। ४५२४ कृतिकर्म के वर्ण्य कौन? ४५२५ पुलाक की भांति पूज्य कौन ? ४५२६ दोष को प्राप्त नहीं होने के कारण? ४५२७ किस मुनि की संयम कारक अयतना दोषकारक नहीं मानी जाती? For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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