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________________ विषयानुक्रम गाथा संख्या विषय ४५२८-४५३० संयत असंयत में भेदरेखा। धनिक का दृष्टान्त। ४५३१ संसार सागर में गिरने वाला और पार होने वाला कौन ? दृष्टान्तपूर्वक विवेचना। ४५३२ वन्दन कार्य और कार्यकार्य की विवेचना तथा इन दोनों में भजनीय कौन? ४५३३ कृतिकर्म, कुलकार्य से बाह्य कौन ? ४५३४ गच्छ में नियमतः कार्य करने वाले चार प्रकार के मुनियों की विकल्पनीयता। ४५३५-४५४० वन्दना किसको, किसको नहीं। वन्दना करने के आपवादिक कारण। कारण में वंदन न करने पर 'अजापालक वाचक' के शिष्यों की भांति दोष भागिता। ४५४१ पार्श्वस्थ आदि के प्रति दोनों प्रकार का कृतिकर्म का प्रतिषेध । आपवादिक स्थिति में अनुज्ञा। ४५४२,४५४३ पार्श्वस्थ आदि की गवेषणा करने के कारण तथा गवेषणीय स्थान। ४५४४,४५४५ संयमधुरा को छोड़ने वालों के प्रति वन्दन व्यवहार के विविध प्रकार। ४५४६ पार्श्वस्थ आदि का कृतिकर्म परिहार्य क्यों? ४५४७ अकार्य करने वालों को दंड। ४५४८ पार्श्वस्थ आदि का अपाय देखकर उसकी वर्जना के उपाय। ४५४९ पार्श्वस्थों को यथायोगग्य वाङ्नमस्कार नहीं करने पर होने वाले दोष। ४५५०-४५५३ पार्श्वस्थों के परिवार आदि में ज्ञान, दर्शन, चारित्र को देखकर, जानकर कृतिकर्म करने का विधान। अंतरगिह-पदं सूत्र २१,२२ ४५५४ रत्नाधिक के लिए दो गृहों के अंतराल में रहने की कल्पनीयता। ४५५५,४५५६ गृहान्तर के प्रकार और व्याख्या। मुनि के लिए दोनों गृहान्तरों में गोचरी जाने का निषेध। वहां रहने से लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त। ४५५७ गृहान्तर में बैठने और ठहरने की अनुज्ञा क्यों नहीं? ४५५८ गृहान्तरों में स्थविर आदि के बैठने की अनुज्ञा।। ४५५९-४५६५ औषध, संखड़ी, संघाटक, वर्षा, प्रत्यनीक आदि कारणों से गृहान्तर में बैठने, खड़े होने तथा ठहरने का विधान और उससे संबंधित यतनाएं। गाथा संख्या विषय सूत्र २३ ४५६६ अन्तरगृह में गाथोपदेश करने की वर्जना। ४५६७-४५७५ भिक्षा के लिए निर्गत मुनि को गृहस्थ के घर में संहिताकर्षण आदि क्यों नहीं करना चाहिए? तद्विषयक लगने वाले दोषों का वर्णन, प्रायश्चित्त और अन्तर गृह में बैठने के दोष। ४५७६-४५८६ विवक्षित अर्थ का समर्थक दृष्टान्त-उदक का दृष्टान्त तथा व्याकरण का अर्थ। खड़े खड़े अथवा भिक्षा के लिए घूमते-घूमते धर्म कथन करना वर्जित। ४५८७-४५८९ चलते हुए मुनि को धर्म कथन का वर्जन। श्रमण को कैसी कथा करनी चाहिए, कैसी नहीं करनी चाहिए, उसका निर्देश। ४५९०-४५९७ जिनवचन की महिमा। धर्मकथा का अन्तरगृह में वर्णन करने पर लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त । सेज्जा संथारय-पदं सूत्र २५ ४५९८ प्रतिश्रय के मध्य संस्तारक-निक्षेपण की अकल्पनीयता। ४५९९-४६०३ शय्या अथवा संस्तारक के दो प्रकार। उनको बिना संभलाए विहार करने पर प्रायश्चित्त और आज्ञाभंग आदि दोष। ४६०४ अनेक मुनियों द्वारा भिन्न घरों से संस्तारक लाने पर प्रत्यर्पण काल में उसी घर में भुलाने की विधि। अन्यथा माया दोष। ४६०५ संस्तारक के एक-अनेक पदों से आठ प्रकार की भजना। ४६०६ संस्तारक के आनयन और प्रत्यर्पण की भजना का रूप। ४६०७-४६०९ विशेष स्थिति में संस्तारक मालिक को न देने पर अथवा अन्य किसी गृहस्वामी को देने का अपवाद। सूत्र २६ ४६१० संस्तारक के दो प्रकार। ४६११-४६१४ सागारिकसत्क संस्तारक को प्रस्थान करते समय बिखेरने की विधि। अन्यथा प्रायश्चित्त और दोष। उत्सर्ग और अपवादविधि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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