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चौथा उद्देशक
= ५७९ तो वह अधिक प्रायश्चित्त उसी को वहन करना होता है जो तुयट्टावणं वा उच्चार-पासवण-खेलप्रायश्चित्त देता है। इसलिए सूत्र के आधार पर प्रायश्चित्त की
सिंघाणविगिंचणं वा विसोहणं वा प्रस्थापना करनी चाहिए। यदि कोई सूत्र के अनुसार
करेत्तए॥
(सूत्र २७) प्रायश्चित्त लेना नहीं चाहता, उसकी नि!हणा करनी
अह पुण एवं जाणेज्जा-छिन्नावाएसु चाहिए उसे कहना चाहिए-अन्यत्र जाकर शोधि करो, प्रायश्चित्त लो।
पंथेसु आउरे झिंझिए पिवासिए, तवस्सी ५५९१.जेणऽधियं ऊणं वा, ददाति तावतिअमप्पणा पावे। दुब्बले किलंते मुच्छेज्ज वा पवडेज्ज वा
अहवा सुत्तादेसा, पावति चतुरो अणुग्घाता॥ एवं से कप्पइ असणं वा पाणं वा खाइमं वा । जो अधिक या न्यून प्रायश्चित्त देता है, उतना उसे स्वयं
साइमं वा दाउं वा अणुप्पदाउं वा॥ को प्राप्त होता है। अथवा जो सूत्रादेश से अधिक या न्यून
(सूत्र २८) प्रायश्चित्त देता है, उसको चार अनुद्घात मास का प्रायश्चित्त आता है।
५५९४.पच्छित्तमेव पगतं, सहुस्स परिहार एव न उ सुद्धो। ५५९२.बितियं उप्पाएउं, सासणपंते असज्झे पंच वि पयाई। तं वहतो का मेरा, परिहारियसुत्तसंबंधो।।
आगाढे कारणम्मिं रायसंसारिए जतणा॥ प्रस्तुत सूत्र में प्रायश्चित्त का ही अधिकार है। समर्थ मुनि इसका अपवादपद यह है। यदि वह शासनप्रान्त-शासन
को परिहारतप ही प्रायश्चित्त के रूप में देना चाहिए। शुद्धतप का प्रत्यनीक हो, असाध्य हो तो उसके साथ अधिकरण कर
नहीं। उसको वहन करने वाले की क्या मर्यादा है? इस उसे शिक्षा दे। यदि स्वयं समर्थ न हो तो इन पांचों पदों की जिज्ञासा के समाधान में प्रस्तुत सूत्र परिहारिक सूत्र का सहायता ले-संयत, ग्राम, नगर, देश और राज्य। आगाद प्रारंभ किया जाता है। यह सूत्र-संबंध है। कारण में राजसंसारिक-दूसरे राजा की स्थापना करनी हो तो ५५९५.वीसुंभणसुत्ते वा, गीतो बलवं च तं परिट्टप्पा। वह यतनापूर्वक करे-उसके स्थान पर उस वंश के अन्य राजा
चोयण कलहम्मि कते, तस्स उ नियमेण परिहारो॥ को राज्य का भार सौंप दे।
मरणसूत्र में बलवान् गीतार्थ मुनि उस मृतक का ५५९३.विज्जा-ओरस्सबली, तेयसलद्धी सहायलद्धी वा। परिष्ठापन कर वहनकाष्ठ ले आता है, गृहस्थ द्वारा कुछ
उप्पादेउं सासति, अतिपंतं कालकज्जो वा॥ कहने पर कलह करता है, उसको नियमतः परिहारतप का ऐसा संपादित करने वाले में ये गुण हों-विद्याबल,
प्रायश्चित्त देना चाहिए। औरसबल, तेजोलब्धि संपन्न, सहायलब्धियुक्त। ऐसा व्यक्ति ५५९६.कंटगमादीसु जहा, आदिकडिल्ले तहा जयंतस्स। अधिकरण को उत्पन्न कर अतिप्रान्त-अतीव प्रवचन
अवसं छलणाऽऽलोयण, ठवणा जुत्ते य वोसग्गो॥ प्रत्यनीक पर अनुशासन करता है, जिस प्रकार कालकाचार्य
उसको परिहारतप क्यों के समाधान में कहा गया, जैसेने गर्दभिल्ल राजा को शासित किया था।
कंटकाकीर्ण और विषम मार्ग में यतनापूर्वक चलते हुए भी
पैरों में कांटा चुभ जाता है वैसे ही आदिकडिल्ल-आद्यगहन परिहारकप्पट्ठिय-पदं
उद्गम आदि दोष में अवश्य ही मुनि की छलना होती है, परिहारकप्पट्ठियस्स णं भिक्खुस्स
उसके आलोचना आती है तथा जो उन गुणों से युक्त हो,
उसको स्थापना-परिहार तप आता है। उस मुनि के वह कप्पइ आयरिय-उवज्झाएणं तद्दिवसं
तपःकर्म निर्विघ्नरूप से पार लगे, इसके लिए सारे गच्छ को एगगिहंसि पिंडवायं दवावेत्तए, तेण परं नो
कायोत्सर्ग करना चाहिए। से कप्पइ असणं वा पाणं वा खाइम वा ५५९७.एस तवं पडिवज्जति, साइमं वा दाउं वा अणुप्पदाउं वा। कप्पइ
ण किंचि आलवति मा ण आलवहा। से अण्णयरं वेयावडियं करेत्तए. तं
अत्तचिंतगस्सा, जहा-उठावणं वा निसीयावणं वा
वाघातो भेण कायव्वो।। १. विद्याबलेन युक्तो यथा-आर्यखपुटः, औरसेन वा बलेन युक्तो यथा-बाहुबली, तेजोलब्ध्या वा सलब्धिको यथा-ब्रह्मदत्तः सम्भूतभवे, सहायलब्धियुक्तो
वा यथा-हरिकेशबलः। (वृ. पृ. १४८०)
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