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बृहत्कल्पभाष्यम् आचार्य कहते हैं-यह मुनि परिहारतप स्वीकार कर रहा ५६०४.देहस्स तु दोबल्लं, भावो ईसिं व तप्पडीबंधो। है। यह कुछ नहीं कहेगा। तुमको भी इसके साथ बात नहीं
अगिलाए सोहिकरणेण वा वि पावं पहीणं से॥ करनी है। यह आत्मचिंतन में लीन रहेगा, इसलिए कोई मुनि देह की दुर्बलता और मनोज्ञ आहारविषयक कुछ व्याघात न करे।
प्रतिबंध--यह भाव कहलाता है। अथवा अग्लानी से शोधि ५५९८.आलावण पडिपुच्छण, परियट्टट्ठाण वंदणग मत्ते। करने से उसका पाप प्रक्षीणप्राय है, यह भाव आचार्य जान
पडिलेहण संघाडग, भत्तदाण संभुंजणा चेव॥ लेते हैं। ये पद परस्पर न करें-आलपन, प्रतिपृच्छा, परिवर्तना ५६०५.आगंतु एयरो वा, भावं अतिसेसिओ से जाणिज्जा। (चितारना), उत्थापन, वंदनक, मात्रक लाकर देना, हेऊहि व से भावं, जाणित्ता अणतिसेसी वि॥ प्रतिलेखन, संघाटक रूप में उसके साथ होना, भक्त-पान आगंतुक मुनि या इतर अतिशयी ज्ञानी उसके इस प्रकार देना, साथ में भोजन करना आदि।
के भाव को जान लेता है। अथवा अनतिशयी ज्ञानी भी बाह्य ५५९९.संघाडगाओ जाव उ, लहुओ मासो दसण्ह उ पयाणं। हेतुओं से उसके भाव को जान लेता है।
लहुगा य भत्तदाणे, संभुंजण होतऽणुग्घाता॥ ५६०६.सक्कमहादी दिवसो, पणीयभत्ता व संखडी विपुला। इन दस पदों में आलपन से संघाटक पर्यन्त का
धुवलंभिग एगघरं, तं सागकुलं असागं वा॥ आचरण करने पर मासलघु, भक्तपान देने पर चतुर्लघु, शक्रमह आदि के दिन प्रणीतभक्त वाली विपुल संखडी में साथ में भोजन करने पर चार अनुद्घात मास का प्रायश्चित्त उसे ले जाते हैं। एक ही घर में अवश्यलाभ होता है चाहे वह आता है।
घर श्रावक का हो अथवा अश्रावक का। ५६००.अट्ठण्हं तु पदाणं, गुरुओ परिहारियस्स मासो उ। (यदि वह पारिहारिक जाने में असमर्थ हो तो गुरु स्वयं
__ भत्तपदाणे संभुंजणे य चउरो अणुग्घाया॥ जाकर वहां से लाकर देते हैं।)
संघाटक पर्यन्त आठ पदों का पारिहारिक मुनि के साथ ५६०७.भत्तं वा पाणं वा, ण दिति परिहारियस्स ण करेंति। आचरण करने पर गुरुमास, भक्तपान देने तथा साथ में भोजन कारणे उट्ठवणादी, चोयग गोणीय दिलुतो। करने पर अनुद्घात चार मास का प्रायश्चित्त है।
तत्पश्चात् पारिहारिक को भक्तपान नहीं देते और न ५६०१.कुव्वंताणेयाणि उ, आणादि विराहणा दुवेण्हं पि। उसके साथ बातचीत ही करते हैं। कारणवश दुर्बलता से
देवय पमत्त छलणा, अधिगरणादी य उदितम्मि। उसको उत्थान आदि कराते हैं। जिज्ञासु के प्रश्न करने पर इन दस पदों को उसके साथ करने पर आज्ञाभंग आदि आचार्य ने गोदृष्टान्त कहा-जैसे नवप्रसूता गाय उठने में दोष तथा दोनों की पारिहारिक साधु की तथा गच्छ के असमर्थ होती है तब ग्वाला उसे उठाता है-चरने के लिए साधुओं की विराधना होती है। कोई देवता (प्रमत्त मुनि को) जंगल में ले जाता है। चरने के लिए जाने में असमर्थ हो तो छल सकता है। तपस्वी द्वारा कुछ कहे जाने पर अधिकरण वाला वहीं घर में चारा लाकर खिलाता है। इसी प्रकार आदि दोष होते हैं।
पारिहारिक भी जितना कर सकता है, उतना उससे कराते ५६०२.विउलं व भत्त-पाणं, दट्ठणं साहवज्जणं चेव।। हैं, न कर सकने पर अनुपारिहारिक करता है।
नाऊण तस्स भावं, संघाडं देंति आयरिया॥ ५६०८.उद्वेज्ज निसीएज्जा, भिक्खं हिंडेज्ज भंडगं पेहे। साधुओं द्वारा विपुल भक्त-पान लाया हुआ देखकर उसके
कुवियपियबंधवस्स व, करेइ इयरो वि तुसिणीओ।। मन में उसे ग्रहण करने की इच्छा उत्पन्न हुई। साधुओं ने पारिहारिक कहता है-मुझे उठाओ, बिठाओ, भिक्षा के वर्जना की। उसके मन की भावना को जानकर आचार्य ने लिए जाओ, भांडों का प्रत्युपेक्षण करो, यह सुनकर उसको मुनियों का एक संघाटक दिया।
अनुपारिहारिक ये सब क्रियाएं इस प्रकार मौनभाव से ५६०३.भावो देहावत्था, तप्पडिबद्धो व ईसि भावो से। संपादित करे जैसे कुपित प्रियबंधु की कोई बंधु संपादित
अप्पातित हयतण्हो, वहति सुहं सेसपछित्तं॥ करता है। भाव का अर्थ है-देह की अवस्था। उससे प्रतिबद्ध उस मुनि ५६०९.णीणेति पवेसेति व, भिक्खगए उग्गहं तउग्गहियं। के मन में उस भोजन के प्रति एक बार थोड़ी भावना जागी। उस
रक्खति य रीयमाणं, उक्खिवइ करे य पेहाए। आहार को पाकर उसकी अभिलाषा शांत हो गई, तृप्त हो गई। भिक्षा के लिए गए हुए पारिहारिक ने जो पात्र आदि लिए अब वह शेष प्रायश्चित्त को सुखपूर्वक वहन करने लगा। थे उनको अनुपारिहारिक पात्रबंध-झोली निकालता है अथवा
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