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________________ चौथा उद्देशक वहां दूसरे रखता है, बाहर जाते हुए की वह रक्षा करता है, भांडों को उठाने में असमर्थ उस पारिहारिक से वह अनुपारिहारिक हाथों में ले लेता है और वही उसकी प्रत्युपेक्षा करता है। ५६१०.एवं तु असढभावो, विरियायारो य होति अणुचिण्णो। भयजणणं सेसाण य, तवो य सप्पुरिसचरियं च॥ यथाशक्ति काम करने पर उसमें अशठभाव प्रदर्शित होता है। वीर्याचार का पालन होता है, शेष साधुओं में भी भय उत्पन्न होता है, तप का अनुपालन होता है तथा सत्पुरुषचरित्र का पालन होता है। ५६११.छिण्णावात किलंते, ठवणा खेत्तस्स पालणा दोण्हं। असहुस्स भत्तदाणं, कारणे पंथे व पत्ते वा॥ छिन्नपात (जनशून्य) मार्ग में जाने से पारिहारिक यदि क्लान्त हो जाता है तो उसके लिए क्षेत्र की स्थापना करनी चाहिए जिसमें वह भिक्षाचर्या के लिए जा सके। इससे दोनों की पारिहारिक और अनुपारिहारिक की पालना हो सकती है। यदि पारिहारिक भिक्षा के लिए जाने में भी असमर्थ हो तो अनुपारिहारिक उसे भक्तपान लाकर दे। दोनों यदि कारणिक हो जाएं तो गच्छ के साधु भक्तपान लाकर दे। अब मार्ग और ग्राम-प्रास विषयक यतना कही जा रही है। ५६१२.उवयंति डहरगाम, पत्ता परिहारिए अपाते। तस्सऽट्ठा तं गाम, ठविंति अन्नेसु हिंडंति॥ मार्ग में जाते हुए यदि कोई छोटा गांव प्राप्त हो जाए और यदि पारिहारिक अभी तक नहीं पहुंचा हो तो उसे उसी ग्राम में स्थापित कर दे। वह वहां भिक्षा करे और गच्छ के साधु अन्य ग्राम में भिक्षा करे। ५६१३.वेलइवाते दूरम्मि य गामे तस्स ठाविउमद्धं । अद्धं अडंति सो वि य, अद्धमडे तेहिं अडिते वा।। यदि वह गांव दूर हो और वहां पहुंचते-पहुंचते भिक्षा की वेला का अतिपात हो जाता है तो उसी गांव का आधाभाग पारिहारिक के लिए और शेष आधे में अन्य साधु घूमते हैं, और यदि पूरा आहार न आए तो पारिहारिक के पर्यटन के पश्चात् वे पूरे गांव में जा सकते हैं। ५६१४.बिइयपथ कारणम्मि,गच्छे वाऽऽगाढे सो तु जयणाए। अणुपरिहारिओ कप्पट्टितो व आगाढ संविग्गो॥ अपवाद पद में कारण में अर्थात् कुलादिकार्य में तथा गच्छ में यदि आगाढ़ कारण हो जाए तो पारिहारिक यतनापूर्वक वैयावृत्य करता है। गच्छ के साधु आगाढ़ योग में लगे हुए हैं, उपाध्याय ग्लान हों या कालगत हो गए हों तो ५८१ अनुपारिहारिक या पारिहारिक या कल्पस्थित मुनि वाचना दे सकता है। वह वाचना देता हुआ संविग्न ही है। ५६१५.मयण च्छेव विसोमे, देति गणे सो तिरो व अतिरो वा। तब्भाणेसु सएसु व, तस्स वि जोगं जणो देति॥ मदनकोद्रव खाने से सारा गच्छ ग्लान हो गया हो, अशिव से ग्रस्त हो, किसी ने विष दे दिया हो, अवमौदर्य हो-इस प्रकार के आगाढ़ कारण में गच्छ फंसा हो तो पारिहारिक गच्छ के भाजनों में या स्वयं के भाजनों में अन्नपान आदि लाकर देता है। वह तिरोहित अर्थात् अनुपारिहारिक आदि को देता है, वह गच्छ को दे देता है। यदि अनुपारिहारिक ग्लान हो जाता है तो अतिरोहितस्वयमेव गच्छ को देता है। जनता उनके योग्य आहार-पानी देती है, वह लाकर उनको दे देता है और स्वयं के योग्य रख लेता है। ५६१६.एवं ता पंथम्मि, जत्थ वि य ठिया तहिं पि एमेव । बाहिं अडती डहरे, इयरे अद्धद्ध अडिते वा। यह मार्गगत की विधि है। जहां वे स्थित हैं, वहीं भी यही क्रम है। छोटे ग्राम में गच्छ के साधु तथा पारिहारिक बहिर् भिक्षा के लिए जाता है। अथवा आधे-आधे में दोनों गण के साधु और पारिहारिक भिक्षाचर्या करते हैं। ५६१७.कप्पट्ठिय परिहारी, अणुपरिहारी व भत्त-पाणेणं। पंथे खेत्ते व दुवे, सो वि य गच्छस्स एमेव॥ कल्पस्थित या अनुपारिहारिक मार्ग में या क्षेत्र मेंपारिहारिक को भक्तपान लाकर देते हैं। पारिहारिक भी इसी प्रकार गच्छ का उपग्रह करता है। महानदी-पदं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाओ पंच महण्णवाओ महानईओ उहिट्ठाओ गणियाओ वंजियाओ अंतो मासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरित्तए वा संतरित्तए वा। तं जहा-गंगा जउणा सरऊ कोसिया मही॥ (सूत्र २९) ५६१८.अद्धाणमेव पगतं, तत्थ थले पुव्ववण्णिया मेरा। जति होज्ज तत्थ तोयं, तत्थ उ सुत्तं इमं होति। पूर्वसूत्र में अध्वा का ही अधिकार था। वहां स्थलगत पूर्व पर्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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