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बृहत्कल्पभाष्यम्
उस गृहस्थ, संघाटक या मूल आचार्य के प्रति जो करेगा, ५५८५.संजयगणो तदधिवो, गिही तु गाम पुर देस रज्जे वा। उससे निष्पन्न प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
एतेसिं चिय अहिवा, एगतरजुतो उभयतो वा। ५५८०.उवसामितो गिहत्थो, तुमं पि खामेहि एहि वच्चाहि। मुनिगण के अधिपति आचार्य होते हैं। गृहस्थों के
दोसा हु अणुवसंते, ण य सुज्झति तुज्झ सामइगं॥ ग्रामाधिपति, पुराधिपति, देशाधिपति, राज्याधिपति होते हैं। गुरु उस मुनि को कहते हैं वह गृहस्थ उपशांत हो गया इनमें से किसी एक को अथवा दोनों को साथ ले वहां जाए। है। तुम भी क्षमायाचना कर लो। चलो, हम उसके पास ५५८६.तहिं वच्चंते गुरुगा, चलते हैं। अनुपशांत में अनेक दोष होते हैं। बिना क्षमायाचना
दोसु तु छल्लहुग गहणे छग्गुरुगा। किए तुम्हारी सामायिक शुद्ध नहीं होती।
उग्गिणि पहरणे छेदो, ५५८१.तमतिमिरपडलभूतो, पावं चिंतेइ दीहसंसारी।
मूलं जं जत्थ वा पंथे॥ पावं ववसिउकामे, पच्छित्ते मग्गणा होति॥ उनके साथ वहां जाने का संकल्प करने पर चतुर्लघु, जैसे तमस्तिमिरपटल के सघनतम अंधकार में कुछ भी प्रस्थित हो जाने पर चतुर्गुरु, प्रहरण देखने या मार्गणा करने दृष्टिगत नहीं होता, वैसे ही वह पापी और दीर्घसंसारी श्रमण पर-दोनों में षड्लघु, ग्रहण करने पर षड्गुरु, प्रहार करने तीव्रतम कषाय के उदय से अंधा बना हुआ अपना हित न पर छेद, मर जाए तो मूल, अथवा जो जहां पृथिवी आदि की देखता हुआ गृहस्थ का अनिष्ट चिंतन करता है। उस हिंसा होती है, तनिष्पन्न प्रायश्चित्त आता है। मार्ग में जाते पाप करने में प्रवृत्त होने वाले श्रमण के लिए प्रायश्चित्त की हुए प्रहरण ग्रहण करता है तो षड्लघु, ग्रहण करने पर मार्गणा होती है।
षड्गुरु आदि। यह भिक्षु के लिए प्रायश्चित्त है। ५५८२.वच्चामि वच्चमाणे, चउरो लहुगा य होति गुरुगा य। ५५८७.एसेव गमो णियमा, गणि आयरिए य होति णायव्वो।
उग्गिण्णम्मि य छेदो, पहरणे मूलं च जं जत्थ।। नवरं पुण नाणत्तं, अणवठ्ठप्पो य पारंची। गृहस्थ को मारने के लिए जाऊं-ऐसा संकल्प करने पर यही विकल्प नियमतः गणी-उपाध्याय, आचार्य चतुर्लघु, प्रस्थित होने पर चतुर्गुरु, मारने के लिए प्रहार तथा गणावच्छेदिक के लिए जानना चाहिए। इसमें यह करने पर छेद, मर जाने पर मूल। तथा जहां जहां जो जो नानात्व है जहां भिक्षु के लिए मूल प्रायश्चित्त है वहां परितापना होती है, उसका प्रायश्चित्त भी आता है।
उपाध्याय के लिए अनवस्थाप्य और आचार्य के लिए ५५८३.तं चेव णिट्ठवेती, बंधण णिछब्भण कडगमहो य।
आयरिए गच्छम्मि य, कुल गण संघे य पत्थारो॥ ५५८८.भिक्खुस्स दोहि लहुगा, गणवच्छे गुरुग एगमेगेणं। उस मुनि को वहां आया हुआ देखकर वह गृहस्थ उसको उज्झाए आयरिए, दोहि वि गुरुगं च णाणत्तं॥ वहीं मार डालता है। बंधन से बांध देता है, गांव से भिक्षु के लिए ये सारे प्रायश्चित्त दोनों अर्थात् तप और निष्काशित कर देता है, कटकमर्द अर्थात् अनेक मुनियों का काल से लघु, गणावच्छेदिक के लिए एकतर अर्थात् तप या वध कर देता है। जैसे पालक ने स्कंदक आचार्य के गच्छ को काल से गुरु, और उपाध्याय और आचार्य के लिए तप और नष्ट कर दिया था। इसी प्रकार कुल, गण और संघ का काल से गुरु होते हैं। यह नानात्व है। प्रस्तार-विनाश कर देता है।
५५८९.काऊण अकाऊण व, उवसंत उवट्ठियस्स पच्छित्तं। ५५८४.संजतगणे गिहिगणे,
सुत्तेण उ पट्ठवणा, असुत्ते रागो व दोसो वा॥ गामे नगरे व देस रज्जे य। गृहस्थ पर प्रहार करके या न करके उपशांत होकर अहिवति रायकुलम्मि य,
प्रायश्चित्त के लिए उपस्थित हुआ है तो उस मुनि को जा जहिं आरोवणा भणिया॥ प्रायश्चित्त देना चाहिए। सूत्र के द्वारा प्रायश्चित्त की साधु को अकेला वहां नहीं जाना चाहिए। वह संयतगण प्रस्थापना करनी चाहिए। असूत्र के द्वारा प्रायश्चित्त की का या गृहस्थगण का सहयोग ले। वे गृहस्थ ग्राम, नगर, देश प्रस्थापना करने पर उस मुनि के मन में राग-द्वेष हो और राज्य के वास्तव्य हों। उनके जो अधिपति हैं उनकी सकता है। सहायता ले। अथवा राजकुल के पुरुषों का सहयोग ले। जो ५५९०.थोवं जति आवण्णे, अतिरेगं देति तस्स तं होति। एकाकी साधु की या जहां जो संकल्प आदि की आरोपणा
सुत्तेण उ पट्ठवणा, सुत्तमणिच्छंते निज्जुहणा।। कही गई है, वही यहां भी जाननी चाहिए।
यदि थोड़े प्रायश्चित्त वाले को अधिक प्रायश्चित्त देते हों
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