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चौथा उद्देशक
= ५७७ के पास उसे आलोचना कराए। तदनन्तर गुरु वृषभ मुनियों उस गृहस्थ के सगे-संबंधियों के साथ जाते हैं और सबसे को उस गृहस्थ के पास भेजे। यदि नहीं भेजते हैं तो उसका पहले उस गृहस्थ को प्रज्ञापित करते हैं और कहते हैं-जिस प्रायश्चित्त है चतुर्लघुक।
साधु ने तुम्हारे साथ कलह किया है, उसे आचार्य ५५७०.आणादिणो य दोसा, बंधण णिच्छुभण कडगमहो य। निष्काशित कर रहे हैं। आचार्य हमारी बात पूरी नहीं सुनते।
वुग्गाहण सत्थेण व, अगणुवगरणं विसं वारे। इसके लिए तुम युक्त हो। तुम चलकर आचार्य को सही आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। वह गृहस्थ अनेक साधुओं जानकारी दो। गृहस्थ के भावों को जानकर गृहस्थ मित्रों का बंधन और निष्काशन करा सकता है, कोई समस्त सहित साधु को साथ ले वृषभ वहां जाते हैं। साधुओं का व्यापादन कर सकता है। लोगों को व्युद्ग्राहित ५५७६.वीसुं उवस्सए वा, ठवेति पेसति फड्डपतिणो वा। कर, वह शस्त्र से साधु को मार देता है। उपाश्रय को जला देंति सहाते सव्वे, व णेति गिहिते अणुवसंते॥ देता है, उपकरणों का अपहरण कर देता है, विष देकर यदि गृहस्थ पूर्णरूप से उपशांत नहीं है तो उस साधु को प्राणघात कर सकता है, भिक्षा की वर्जना कर देता है। अन्य उपाश्रय में स्थापित कर देते हैं अथवा स्पर्द्धकपति के ५५७१.रज्जे देसे गामे णिवेसण गिहे णिवारणं कुणति।। पास भेज देते हैं। उसको सहायक देते हैं। जब मासकल्प
जा तेण विणा हाणी, कुल गण संघे य पत्थारो॥ पूर्ण हो जाता है तब सभी मुनि वहां से विहार कर जाते हैं। राज्य, देश, गांव, निवेशन और गृह का निवारण करा यह विधि गृहस्थ के उपशांत न होने की है। सकता है। अतः उससे जो हानि होती है उसका प्रायश्चित्त ५५७७.अविओसियम्मि लहुगा, गुरु को प्राप्त होता है। वह गृहस्थ यदि प्रभावशाली हो तो
भिक्ख वियारे य वसहि गामे य। कुल, गण और संघ का प्रस्तार-विनाश करा देता है।
गणसंकमणे भण्णति, ५५७२.एयस्स णत्थि दोसो,
इह पि तत्थेव वच्चाहि॥ अपरिक्खियदिक्खगस्स अह दोसो। यदि मुनि कलह को उपशांत किए बिना भिक्षा पभु कुज्जा पत्थारं,
लिए जाता है, विचारभूमी में जाता है, अन्य साधु की
अपभू वा कारवे पभुणा॥ वसति में जाता है या विहार करता है तो उसे चतुर्लघु का गृहस्थ सोचता है-साधु का कोई दोष नहीं है। यह प्रायश्चित्त आता है। यदि गण संक्रमण करता है तो उस सारा दोष उनका है जिन्होंने परीक्षा किए बिना इसको गण के साधु कहते हैं यहां भी गृहस्थ क्रोधी हैं, इसीलिए दीक्षित किया है। अतः मैं उसका ही व्यापादन कर दूं। वहीं लौट जाओ। यह सोचकर समर्थ होने पर वह स्वयं प्रस्तार-साधुओं को ५५७८.इह वि गिही अविसहणा, मार डालता है। समर्थ न होने पर राजा को कहकर मरवा
ण य वोच्छिण्णा इह तुह कसाया। देता है।
अन्नेसिं पाऽऽयासं, ५५७३.तम्हा खलु पट्ठवणं, पुव्वं वसभा समं च वसभेहिं।
जणइस्ससि वच्च तत्थेव॥ अणुलोमण पेच्छामो, णेति अणिच्छं पि तं वसभा॥ यहां भी गृहस्थ असहिष्णु हैं। यहां आने से तुम्हारे कषाय अतः वृषभों को भेजना ही चाहिए। पहले वृषभ उस व्यवच्छिन्न नहीं हो जाएंगे। यहां रहकर तुम दूसरे साधुओं में गृहस्थ के पास जाए, और अनुकूल वचनों से उस गृहस्थ को भी आयास पैदा करोगे, इसीलिए वहीं चले जाओ। उपशांत करे। गृहस्थ कहे-उस कलहकारी को मैं देखना ५५७९.सिट्ठम्मि न संगिण्हति, संकंतम्मि उ अपेसणे लघुगा। चाहता हूं। तब वह साधु उस गृहस्थ के सम्मुख जाना चाहे गुरुगा अजयणकहणे, एगतरपतोसतो जं च॥ या न चाहे, वृषभ उसको वहां अपने साथ ले जाएं।
अनुपशांत साधु गणान्तर में संक्रान्त हो जाने पर मूल ५५७४.तस्संबंधि सुही वा, पगता ओयस्सिणो गहियवक्का। आचार्य साधु संघाटक को वहां भेजे। उनके द्वारा कहने पर
तस्सेव सुहीसहिया, गति वसभा तगं पुव्वं॥ वहां के आचार्य उसको ग्रहण नहीं करते। यदि मूल आचार्य ५५७५.सो निच्छुब्भति साहू, आयरिए तं च जुज्जसि गमेतुं। संघाटक को नहीं भेजते हैं तो उनको चतुर्लघु का प्रायश्चित्त
नाऊण वत्थुभावं, तस्स जती णिति गिहिसहिया॥ है। वह संघाटक यदि अयतनापूर्वक बात कहता है तो वे वृषभ उस गृहस्थ या मुनि के संबंधी या सृहृद् हो चतुर्गुरु। और यदि लोगों के समक्ष उस साधु की बात सकते हैं, वे लोक विश्रुत, ओजस्वी, आदेयवचन वाले हों, वे अयतनापूर्वक कहता है तो वह साधु प्रद्वेषवश एकतर अर्थात्
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