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________________ ३९० = बृहत्कल्पभाष्यम् ३७७२.एएहिं कारणेहिं पविसंते ऊ णिसीहिया तिन्नि। जो आर्या क्रियातीत-चिकित्सा से अतीत है, वह जो चाहे ठिच्चाणं कायव्वा, अंतर दूरे पवेसे य॥ वह द्रव्य शुद्ध एषणा से प्राप्त कर उसे दे। फिर उसमें यह इन ग्लानत्व आदि कारणों से आर्यिका की वसति में श्रद्धा पैदा करे कि वह अनशन स्वीकार कर सके। अनशन प्रवेश करता हुआ मुनि तीन नैषेधिकी करे। पहली नैषेधिकी स्वीकार करने के पश्चात् उसका प्रतिचरण करे। धर्मकथा करने के पश्चात् कुछ समय बाद दूसरी और फिर तीसरी करे और अन्त में उसको नमस्कार महामंत्र सुनाए। नैषेधिकी करे। पहली नैषेधिकी दूर अर्थात् अग्रद्वार पर, ३७७९.दव्वं तु जाणियव्वं, समाधिकारं तु जस्स जं होति। दूसरी मध्यभाग में और तीसरी मूलद्वार पर करे। ___णायम्मि य दव्वम्मि, गवेसणा तस्स कायव्वा॥ ३७७३.पडिहारिए पवेसो, तक्कज्जसमाणणा य जयणाए। परिचारक को जानना चाहिए कि किस रोग में कौनसा गेलण्णे चिट्ठणादी, परिहरमाणो जतो खिप्पं॥ द्रव्य समाधिकारक होता है। ज्ञात होने पर उस द्रव्य की शय्यातरी द्वारा प्रतिहारित-आर्या को ज्ञापित करने पर गवेषणा करनी चाहिए। प्रवेश करे। प्रवेश करने के पश्चात् ग्लान आर्या के कार्य का ३७८०.सयमेव दिट्ठपाढी, करेति पुच्छति अजाणओ वेज्ज। यतना से समापन करे। उस समय मुनि वहां बैठे, खड़ा रहे दीवण दव्वादिम्मि य, उवदेसे ठाति जा लंभो॥ आदि कार्य करे। वहां वह ग्लान संबंधी कार्यों को जो दृष्टपाठी होता है वह स्वयं चिकित्सा करता है। यदि आत्मसमुत्थ, परसमुत्थ और उभयसमुत्थ दोषों का परिहार वह चिकित्साविधि का अजानकर हो तो वैद्य को पूछे। वैद्य करता हुआ शीघ्रता से संपन्न करे। का दीपन (स्पष्ट कथन) करे-उसे कहे 'मैं अकेला हूं, इसका ३७७४.पियधम्मो दढधम्मो, मियवादी अप्पकोतुहल्लो य। अपशकुन न मानें। जब वैद्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का अज्जं गिलाणियं खलु, पडिजग्गति एरिसो साहू॥ उपदेश दे तो उससे कहे यदि वह द्रव्य न मिले तो क्या दें। साध्वी की परिचर्या करने वाला मुनि प्रियधर्मा, दृढ़धर्मा, वैद्य द्रव्यान्तर की बात कहते कहते विरत हो जाए तो जिस मितवादी तथा कौतूहल से वर्जित हो। ऐसा मुनि ग्लान आर्या द्रव्य से निश्चित लाभ हो उसको जान ले। की वैयावृत्य कर सकता है। ३७८१.अब्भासे व वसेज्जा, संबद्ध उवस्सगस्स वा दारे। ३७७५.सो परिणामविहिण्णू, इंदियदारेहिं संवरियदारो। आगाढे गेलण्णे, उवस्सए चिलिमिणिविभत्ते॥ जं किंचि दुब्भिगंधं, सयमेव विगिंचणं कुणति॥ संयती प्रतिश्रय में समीप असंबद्ध अन्यगृह में रहे। वह न ३७७६.गुज्झंग-वदण-कक्खोरुअंतरे तह थणंतरे दहूँ। हो तो संबद्ध गृह में रहे। उसके अभाव में उपाश्रय के द्वार साहरति ततो दिळिं, न य बंधति दिट्ठिए दिढिं। पर रहे। आगाढ़ ग्लानकार्य हो तो उपाश्रय में चिलिमिलिका वह मुनि परिणामविधिज्ञ, इन्द्रियद्वारों को पूर्णरूप से से विभक्त कर उस स्थान में रहे। संवृत करने वाला हो। ऐसा मुनि ही आर्या का यत्किंचित् ३७८२.उव्वत्तण परियत्तण, उभयविगिंचट्ठ पाणगट्ठा वा। संज्ञा आदि जो दुर्गन्धयुक्त हो उसको स्वयमेव दूर करता है, तक्करभय भीरू अध, णमोकारट्ठा वसे तत्थ॥ उसका परिष्ठापन करता है। वह मुनि आर्या के गुह्यांग, मुंह, उस आर्या को करवट बदलवाने, परिवर्तन करने, उच्चारकांख, ऊरु आदि के अवकाशों तथा स्तनान्तरों को देखकर प्रस्रवण-दोनों का परिष्ठापन करने, पानक देने के लिए, अपनी दृष्टि को वहां से हटा ले तथा वह आर्या की दृष्टि से आर्या स्वाभाविकरूप से भीरू हो तो उसकी तस्कर-भय से अपनी दृष्टि न मिलाये। रक्षा करने के लिए अथवा मरणवेला में नमस्कार का पाठ देने ३७७७.उच्चारे पासवणे, खेले सिंघाणए विगिंचणया। के लिए वह मुनि रात्री में भी वहां रह सकता है। उव्वत्तण परियत्तण, णंगत णिल्लेवण सरीरे॥ ३७८३.धिइ-बलजुत्तो वि मुणी, आर्या के उच्चार, प्रस्रवण, श्लेष्म तथा सिंघान का सेज्जातर-सण्णि-सिज्झगादिजुतो। परिष्ठापन करे। उसको करवट बदलाए, उसका एक दिशा वसति परपच्चयट्ठा, से दूसरी दिशा में परिवर्तन कराए। उसका शरीर तथा सलाहणट्ठा य अवराणं॥ कपड़े मल-मूत्र से खरंटित हो गए हों तो उन्हें पानी से साफ यद्यपि वह मुनि धृति और बल से युक्त है, फिर भी वह कर दे। शय्यातर, संजी-श्रावक अथवा सहवासी के साथ संयती ३७७८.किरियातीतं णाउं, जं इच्छति एसणाए जं तत्थ। वसति में रहता है। यह इसलिए कि दूसरों में विश्वास उत्पन्न सद्धावणा परिण्णा, पडियरण कहा णमोक्कारो॥ हो तथा अन्यतीर्थिकों में निर्ग्रन्थ प्रवचन की श्लाघा हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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