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________________ कथा परिशिष्ट =७२५ मंत्री राज्य का पालन करता था। मंत्री को मां-बेटे के इस व्यवहार का पता चला तो उसने अनंग को समझाया पर वह माना नहीं। माता के साथ निःसंकोच भोग भोगता रहा। गा. ५२१८ वृ. पृ. १३८७ १२५. भोगासक्ति एक वणिक् को अपनी पत्नी के प्रति अपार स्नेह था। वह व्यापार के निमित्त से प्रदेश जाना चाहता था। उसने पत्नी से प्रदेश जाने की इच्छा व्यक्त की। वह बोली-पतिदेव! मैं आपके बिना एक क्षण भी नहीं रह सकती, मैं भी आपके साथ ही चलूंगी। वणिक ने उसकी बात स्वीकार कर ली। पत्नी सगर्भा थी। शुभ मुहूर्त में दोनों जहाज में रवाना हो गए। संयोग की बात जहाज समुद्र के बीच पहुंचा और तूफान आ गया। भयंकर तूफान से जहाज टूट गया। वणिक् समुद्र में गिर जाने से मर गया और उसकी पत्नी के काष्ठ हाथ लग गया। वह काष्ठ के सहारे तैरती हुई अन्तर द्वीप पहुंच गयी। जंगल में उसने पुत्र को जन्म दिया। पुत्र के प्रति आसक्ति बढ़ने लगी। दोनों ही भोग भोगने लगे। उसने पुत्र को ऐसे संस्कार दिये कि वह मनुष्य को देखने मात्र से भयभीत हो जाता। एक बार किसी व्यापारी का जहाज टूट गया तो कुछ वणिक् काष्ठ के सहारे उसी जंगल में पहुंच गए। उन्होंने उस बच्चे को देखा और सोचा इससे कुछ जानकारी कर ले। किन्तु उस बालक ने उनको देखा और देखते ही भाग गया। वे सभी वणिक् उसी जंगल में रहने लगे। धीरे-धीरे बालक के साथ उनका सम्पर्क बढ़ा। यथास्थिति ज्ञात हुई तो उन्होंने बालक से कहा कि मां के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए। इससे महापाप होता है। मां-बेटे दोनों परस्पर राग रंजित थे। उन्हें अपना आचरण गलत नहीं लगता। गा. ५२२३ वृ. पृ. १३८८ १२६. अंध दृष्टान्त अंधपुर नगर पर अनंध राजा का शासन था। राजा अंधों का बहुत आदर करता था। एक दिन राजा ने राज्य के सभी अंधे मनुष्यों को आमंत्रित किया। वे आए, राजा ने उन्हें राजदरवार में अग्रिम पंक्ति में स्थान दिया। खूब आवभागत की, खाने-पीने की अच्छी व्यवस्था की और आभूषणों से अलंकृत किया। वे सभी धनी हो गए। नगर में उनके रहने की उचित व्यवस्था की। किसी धूर्त ने अंधों के प्रति राजा का यह व्यवहार देखा तो वह अंधों की सेवा में लग गया। मिथ्या-उपचार से उसने उनका मन जीत लिया और सबका विश्वास-पात्र बन गया। वे सभी उसका गुणानुवाद करते तो वह कहता मैं अंधों का दास हूं, आपकी सेवा करना मेरा परम कर्त्तव्य है। एक दिन अवसर देखकर धूर्त ने कहा-मैं आपको अपने-अपने घर पहुंचा दूंगा। पर रास्ता विकट है। वहां चोर और डाकुओं का स्थान है। आप सावधान होकर मेरे साथ चले। सब तैयार हो गए। मार्ग में धन सुरक्षित रखने के बहाने उसने सबसे अपना-अपना अंतर्धन मांगा। सबने विश्वास के कारण धन दे दिया। थोड़ी दूर चले ही थे और उन्हें एकदूसरे से बांध दिया और कहा-आप इस मार्ग पर चलते रहे कोई कुछ भी कहे तो उन्हें पत्थर की मारना। क्योंकि वे चोर ही होंगे। मैं धन सुरक्षित रखता हुआ आगे-आगे चल रहा हूं। धूर्त सारा धन लेकर नो दो ग्यारह हो गए। वे पूरी रात घूमते रहे। रात बीती, सूर्योदय हुआ और ग्वाले गायों को चराने के लिए जंगल में आए। उन्होंने अंधों को पर्वत के चारों ओर चक्कर लगाते देखा तो ग्वाले बोले देखो बेचारे डूंगर के चारों ओर घूम रहे है। यह सुनते ही वे पत्थर फैंकने लगे। मार की डर से ग्वाले भाग गए। गा. ५२२६ वृ. पृ. १३८९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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