SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 229
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ = ५५७ चौथा उद्देशक ५३९४.खेत्तम्मि खेत्तियस्सा, खेत्तबहिं परिणए पुरिल्लस्स। ___अंतर परिणय विप्परिणए य णेगा उ मग्गणता॥ साधु परिगृहीत क्षेत्र में वह प्रव्रज्या परिणत होता है तो वह क्षेत्रिक का आभाव्य होता है। क्षेत्र के बाहर परिणत होने पर उसी साधु का (धर्मकथा कहने वाले का) आभाव्य होता है। क्षेत्र में ही प्रव्रज्या का परिणाम हुआ और क्षेत्र के भीतर ही विपरिणत हो गया तब धर्मकथिक की क्षेत्र-अक्षेत्रगत राग-द्वेष के आधार पर अनेक मार्गणा होती है। ५३९५.वीसज्जियम्मि एवं, अविसज्जिए चउलहुं च आणादी। तेसिं पि हुंति लहुगा, अविधि विही सा इमा होइ॥ यह विधि आचार्य द्वारा विसर्जित शिष्य के लिए है। अविसर्जित जाने वाले शिष्य के लिए चतुर्लघु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष हैं। जिनके पास वह जाता है, उनको भी चतुर्लघु। अविधि का निरूपण किया जा चुका है, विधि यह होती है। ५३९६.परिवार-पूयहेउं, अविसज्जते ममत्तदोसा वा। ____ अणुलोमेण गमेज्जा, दुक्खं खु विमुंचिउं गुरुणो॥ आचार्य अपने शिष्य-परिवार के लिए, पूजा के निमित्त, ममत्व दोष के कारण शिष्य को विसर्जित नहीं करता तो उसे अनुकूल वचनों से प्रज्ञापित करे। यह सच है कि गुरु के लिए शिष्य को विमुक्त करना कष्टप्रद होता है। ५३९७.नाणम्मि तिण्णि पक्खा, __ आयरि-उज्झाय-सेसगाणं च। एक्वेक पंच दिवसे, ___ अहवा पक्खेण एक्वेक्वं॥ जो शिष्य ज्ञान के निमित्त गण से अपक्रमण करता है तो तीन पक्षों-आचार्य, उपाध्याय और शेष साधु को पूछ कर करना चाहिए। प्रत्येक को पांच-पांच दिन के लिए पूछे-यह एक पक्ष है। दूसरा और तीसरा पक्ष भी इसी प्रकार पूछे। अथवा पक्ष से एक-एक को पूछे ये तीन पक्ष हो लाते हैं। यदि इतने पर भी विसर्जित नहीं करते हैं तो अविसर्जित ही वहां से प्रस्थान कर दे। ५३९८.एयविहिमागतं तू, पडिच्छ अपडिच्छणे भवे लहुगा। अहवा इमेहिं आगते, एगादि पडिच्छती गुरुगा॥ इस विधि से आए हुए प्रतीच्छक को उपसंपदा देकर स्वीकार करे। स्वीकार न करने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। इनमें से एक आदि कारणों से आए हुए को स्वीकार करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। १. आत्मीयां दिशं बध्नाति, स्वशिष्यत्वेन स्थापयति। (वृ. पृ. १४३५) ५३९९.एगे अपरिणते या, अप्पाहारे य थेरए। गिलाणे बहुरोगी य, मंदधम्मे य पाहुडे। वह एकाकी आचार्य को छोड़कर आया है। अथवा आचार्य के पास जो साधु हैं वे अपरिणत हैं, अथवा आचार्य अल्पाधार वाले हैं, आचार्य स्थविर हैं, आचार्य ग्लान या बहुरोगी हैं, शिष्य मंदधर्मा हैं। वह गुरु से कलह कर आया है। ५४००.एयारिसं विओसज्ज, विप्पवासो ण कप्पती। सीस-पडिच्छा-ऽऽयरिए, पायच्छित्तं विहिज्जती॥ इस प्रकार के आचार्य का व्युत्सर्ग कर विप्रवास-गमन करना नहीं कल्पता। इसमें शिष्य, प्रतीच्छक और आचार्यतीनों को प्रायश्चित्त आता है। ५४०१.बिइयपदमसंविग्गे, संविग्गे चेव कारणागाढे। नाऊण तस्सभावं, कप्पति गमणं अणापुच्छा। जो पहले कहा गया कि ज्ञानार्थ जाने वाले को तीन पक्षों को पूछ कर प्रस्थान करना चाहिए। प्रस्तुत गाथा उसका आपवादिक है। असंविग्न आचार्य को तथा आगाढ़ कारण में सविग्न आचार्य को बिना पूछे भी जा सकता है। गुरु के भावों को जानकर कि ये पूछने पर भी विसर्जित नहीं करेंगे तो वह बिना पूछे भी जा सकता है। ५४०२.अज्झयणं वोच्छिज्जति, तस्स य गहणम्मि अत्थि सामत्थं। ण वि वियरति चिरेण वि, एतेणऽविसज्जिओ गच्छे। वह श्रुत का अध्ययन व्युच्छिन्न हो जायेगा परन्तु उसके ग्रहण में उस शिष्य का सामर्थ्य है और उसके ग्रहण के लिए गुरु चिरकाल तक भी उसे नहीं भेजेंगे, यह सोचकर गुरु द्वारा अविसर्जित किए जाने पर भी वह चला जाए। ५४०३.नाऊण य वोच्छेदं, पुव्वगते कालियाणुओगे य। अविहि-अणापुच्छाऽऽगत, सुत्तत्थविजाणओ वाए। पूर्वगत और कालिक अनुयोग का व्यवच्छेद जानकर अविधि और आचार्य को पूछे बिना आए हुए शिष्य को सूत्रार्थ ज्ञायक अवश्य वाचना दे। ५४०४.णाऊण य वोच्छेदं, पुव्वगते कालियाणुओगे य। सुत्तत्थजाणगस्सा, कारणजाते दिसाबंधो।। पूर्वगत और कालिकानुयोग के व्यवच्छेद को जानकर सूत्रार्थज्ञायक को कारण उत्पन्न होने पर अनाभाव्य के साथ आत्मीय दिग्बंध करना चाहिए, अपने शिष्य की भांति उसे ग्रहण करना चाहिए। समा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy