________________
५५६
,
आचार्य यदि अकेला हो, असहाय हो तो परिषद् का ग्रहण करे। यदि शिष्य मंदमेधा वाले हों तो पर्षद्वत्व भी करे दुर्भिक्ष आदि काल तथा मार्ग-गमन की वेला में उपग्रहकारी शिष्यों का संग्रहण करे। पूर्वोक्त कारणों से सचित्त आदि भी ग्रहण किया जा सकता है।
५३८५. कालगयं सोऊणं, असिवादी तत्थ अंतरा वा वि
परिसेल्लय पडिसेहं, सुद्धो अण्णं व विसमाणो ॥ अभिधारित आचार्य को कालगत सुनकर अथवा जहां जाना है वहां या बीच में अशिव आदि का प्रकोप जानकर परिषद् प्रिय आचार्य या प्रतिषेधक आचार्य या अन्य आचार्य के पास जाने वाला भी शुद्ध है। ५३८६. वच्चंतो वि य दुविहो, वत्तमवत्तस्स मग्गणा होति । वत्तम्मि खेत्तवज्जं, अव्वत्ते अणप्पिओ जाव ॥ जाने वाला प्रतीच्छक दो प्रकार का होता है-व्यक्त और अव्यक्त उनकी मार्गणा करनी होती है। व्यक्त प्रतीच्छक के जो सचित्तावि का लाभ परक्षेत्र में होता है तो वह अभिधारित आचार्य का होता है। अव्यक्त प्रतीच्छक, जब तक वह आचार्य को समर्पित नहीं हो जाता तब तक परक्षेत्र को छोड़कर, उसके सहायक जो प्राप्त करते हैं वह पूर्वाचार्य का होता है।
५३८७. सुतअव्वत्तो अगीतो, वएण जो सोलसण्ह आरेणं ।
तव्विवरीओ वत्तो, वत्तमवत्ते य चतुभंगो! अव्यक्त के दो प्रकार हैं-श्रुत से अव्यक्त, अगीतार्थ और वय से अव्यक्त अर्थात् सोलह वर्ष से पहले। इनके विपरीत जो होता है, वह है व्यक्त व्यक्त-अव्यक्त की चतुभंगी होती है- १. श्रुत से अव्यक्त, वय से भी अव्यक्त ।
२. श्रुत से अव्यक्त, वय से व्यक्त ।
३. श्रुत से व्यक्त, वय से अव्यक्त । ४. श्रुत और वय दोनों से व्यक्त ।
५३८८. वत्तस्स वि दायव्वा, पहुप्पमाणा सहाय किमु इयरे ।
खेत्तविवज्जं अच्छंतिएस जं लब्भति पुरिल्ले ॥ साधुओं की संपूर्ति करने वाले आचार्य को चाहिए कि व्यक्त को भी सहायक साधु देने चाहिए, अव्यक्त की तो बात ही क्या? सहायक दो प्रकार के हैं आत्यन्तिक और अनात्यन्तिक । आत्यन्तिक सहायकों के साथ व्यक्त को परक्षेत्र को छोड़कर लाभ होता है, वह जिस आचार्य के अभिमुख जाता है, उसका होता है।
५३८९. जइ उं एतुमणा, जं ते मम्मिल्ले वत्ति पुरिमस्स ।
नियमsव्वत्त सहाया, णेतु णियत्तंति जं सो य ॥ जो सहायक उसको पहुंचाकर लौट आना चाहते हैं.
Jain Education International
बृहत्कल्पभाष्यम्
उनको जो लाभ होता है, वह सब उस आचार्य का होता है, जिसके पास से वे चले हैं। नियमतः अव्यक्त को सहायक दिए जाते हैं। वे आत्यन्तिक होते हैं, उसको पहुंचा कर लौट आते हैं। तथा उसको जो लाभ होता है वह अभिधारित आचार्य का आभाव्य होता है।
५३९०. बितियं अपहुच्यते, न देज्ज वा तस्स सो सहाए तु । वगादिअपडिवसंतगस्स उबही विसुद्ध उ ॥ अपवाद पद में आचार्य यदि साधुओं की पूर्ति करने में असमर्थ हों तो वे उसको सहायक साधु नहीं देते, वह यदि श्रुत और वय से व्यक्त हो तो व्रजिका आदि में उसकी प्रतिबद्धता वाले उसकी उपधि शुद्ध है, उसका उपघात नहीं होता। जो व्रजिका आदि में प्रतिबद्ध होता है उसकी उपधि का उपघात होता है।
५३९१. एगे तू वच्चते, उग्गहवज्जं तु लभति सच्चित्तं ।
वच्चंत गिलाणे अंतरा तु तहिं मग्गणा होइ ॥ जो व्यक्त एकाकी जाता है वह अन्य आचार्य के अवग्रहवर्जित क्षेत्र में जो कुछ पाता है, उसमें सचित अभिधारित आचार्य का होता है। जो ज्ञान के निमित्त जाता है, वह दो तीन आचार्यों का अभिधारणा कर चलता है। वह मध्य में ग्लान हो गया। आचार्यों ने सुना कि हमारी अभिधारणा कर आने वाला साधु मार्ग में ग्लान हो गया। वहां यह आभाव्यअनाभाव्य की मार्गणा होती है।
५३९२. आयरिय दोण्णि आगत, एक्के एक्के वऽणागए गुरुगा ।
ण व लभती सच्चित्तं कालगते विष्परिणए वा ॥ यदि वे दोनों आचार्य आए हैं तो उसने जो पाया है वह सारा दोनों का होता है अथवा उन दोनों आचार्यों में एक आया है और एक नहीं आया है तो नहीं आने वाले को चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा उसे सचित्त या अचित्त कुछ भी नहीं मिलता। यदि वह शिष्य कालगत हो जाता है तब भी जो उसकी गवेषणा में आगत है, उसीका आभाव्य होता है। यदि शिष्य विपरिणत हो गया है तो उस आचार्य को कुछ भी प्राप्त नहीं होता। विपरिणत होने से पूर्व जो लब्ध हुआ है, वह प्राप्त हो सकता है।
५३९३. पंथ सहाय समत्थो, धम्मं सोऊण पव्वयामि ति ।
खेत्ते य बाहि परिणये, वाताहडे मग्गणा इणमो ॥ ज्ञानार्थ प्रस्थित मुनि को कोई समर्थ सहायक वाताहत वायु की भांति आकृष्ट की तरह आकस्मिक ढंग से मिल गया। वह उसके पास धर्म सुनकर प्रव्रज्या लेने के लिए तैयार हुआ। उसका वह परिणाम साधु परिगृहीत क्षेत्र के भीतर या बाहर हुआ है, उसकी यह मार्गणा होती है।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org