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________________ ५५८ बृहत्कल्पभाष्यम् ५४०५.ससहायअवत्तेणं, खेत्ते वि उवट्ठियं तु सच्चित्तं। उद्दिष्ट किया था, उसी को पढ़ता हुओ प्रथम वर्ष में जो दलियं णाउं बंधति, उभयममत्तट्ठया तं वा॥ प्राप्त करता है वह कालगत आचार्य का आभाव्य होता है। ससहायक एक अव्यक्त सचित्त शैक्ष परक्षेत्र में उपस्थित यह एक विभाग है। पश्चात् उद्दिष्ट की वाचना देते हुए प्रथम हुआ। वह पूर्वाचार्य और क्षेत्रिक साधुओं का आभाव्य होता वर्ष में जो प्राप्त होता है वह प्रवाचक का होता है। यह दूसरा है। फिर भी उसको 'दलिक' अर्थात् मेधावी और आचार्यपद विभाग है। योग्य जानकर अपने शिष्यत्व के रूप में स्थापित करता है। ५४१०.पुव्वं पच्छुद्दिढे, पडिच्छए जं तु होइ सच्चित्तं। साधु-साध्वियों-दोनों का उसके प्रति ममत्व भाव है अथवा संवच्छरम्मि बितिए, तं सव्वं पवाययंतस्स॥ जो प्रतीच्छक आया है, वह भी ग्रहण-धारणा में समर्थ है प्रतीच्छक पूर्वोद्दिष्ट पढ़े या पश्चाद् उद्दिष्ट पढ़े, उसे जो तो उसे भी स्वशिष्य के रूप में स्थापित करता है- सचित्त आदि का लाभ होता है, वह दूसरे वर्ष में प्रवाचक का यह मान्य है। होता है। यह तीसरा विभाग है। ५४०६.आयरिए कालगते, परियट्टइ तं गणं च सो चेव। ५४११.पुव्वं पच्छुद्दिष्टे, सीसम्मि य जं तु होइ सच्चित्तं। - चोएति य अपढंते, इमा उ तहिं मग्गणा होइ। संवच्छरम्मि पढमे, तं सव्वं गुरुस्स आभवइ॥ जिस शैक्ष और प्रतीच्छक को शिष्यरूप से स्वीकार शिष्य पूर्वोद्दिष्ट या पश्चात् उद्दिष्ट पढ़ता हुआ सचित्त किया है वे ही आचार्य के कालगत होने पर उस गण को आदि जो कुछ प्राप्त करता हुआ पहले वर्ष में, वह सारा गुरु स्वयं चलाते हैं। गण के जो साधु श्रुत नहीं पढ़ते उन्हें प्रेरणा का आभाव्य होता है। देते हैं। यदि प्रेरणा देने पर भी नहीं पढ़ते तो इस आभवद् ५४१२.पुव्वुद्दि तस्सा, पच्छुट्ठि पवाययंतस्स। व्यवहार की मार्गणा होती है। संवच्छरम्मि बितिए, सीसम्मि उ जं तु सच्चित्तं॥ ५४०७.साहारणं तु पढमे, जो शिष्य पूर्वोद्दिष्ट पढ़ रहा है तो दूसरे वर्ष में सचित बितिए खित्तम्मि ततिय सुह-दुक्खे।। आदि कालगत आचार्य का आभाव्य होता है। पश्चाद् उद्दिष्ट अणहिज्जंते सीसे, पढ़ने वाले शिष्य का सचित्त आदि लाभ प्रवाचक का सेसे एक्कारस विभागा॥ आभाव्य होता है। आचार्य के कालगत होने के प्रथम वर्ष में जो लाभ होता ५४१३.पुव्वं पच्छुद्दिढे, सीसम्मि य जं तु होइ सच्चित्तं। है वह साधारण होता है, सबके होता है। दूसरे वर्ष में जो संवच्छरम्मि ततिए, तं सव्वं पवाययंतस्स॥ क्षेत्रोपसंपन्न को लाभ होता है वह जो नहीं पढ़ते उनका होता तीसरे वर्ष में पूर्वोद्दिष्ट या पश्चाद् उद्दिष्ट पढ़ने वाले है। तीसरे वर्ष में जो सुख-दुःख उपसंपन्न को प्राप्त होता है, शिष्य द्वारा प्राप्त सचित्त आदि प्रवाचक का होता है। यह वह उनका होता है और चौथे वर्ष में कालगत आचार्य के जो सातवां विभाग है। नहीं पढ़ने वाले शिष्य हैं उन्हें कुछ नहीं मिलता तथा शेष जो ५४१४.पुव्वुद्दिढे तस्सा, पच्छुद्दिढे पवाययंतस्स। पढ़ने वाले हैं उनके ग्यारह विभाग हैं। संवच्छरम्मि पढमे, सिस्सिणिए जं तु सच्चित्तं॥ ५४०८.खेत्तोवसंपयाए, बावीसं संथुया य मित्ता य। जो शिष्या पूर्वोद्दिष्ट पढ़ती है, प्रथम वर्ष में प्राप्त सुह-दुक्ख मित्तवज्जा, चउत्थए नालबद्धाइं॥ सचित्तादि कालगत आचार्य का आभाव्य होता है। यह शिष्य ने पूछा-क्षेत्रोपसंपन्न और सुख-दुःखोपसंपन्न को आठवां विभाग है। पश्चाद् उद्दिष्ट पढ़ने वाली शिष्या द्वारा क्या मिलता है? आचार्य कहते हैं-'क्षेत्रोपसंपदा से उपसंपन्न प्राप्त सचित्त आदि प्रवाचक का आभाव्य होता है। यह नौवां व्यक्ति को अनन्तर और परंपरावल्ली बद्ध माता-पिता आदि विभाग है। बावीस पुरुष प्राप्त होते हैं। तथा पूर्व-पश्चाद् संस्तुत और ५४१५.पुव्वं पच्छुद्दिद्वे, सिस्सिणिए जंतु होइ सच्चित्तं। मित्र प्राप्त होते हैं। सुख-दुःखोपसंपन्न को मित्रवर्ण्य ये सारे संवच्छरम्मि बीए, तं सव्वं पवाययंतस्स॥ मिलते हैं। चौथा अर्थात् श्रुतसंपन्न केवल बावीस नालबद्ध को पूर्वोद्दिष्ट अथवा पश्चाद् उद्दिष्ट पढ़ने वाली शिष्या का प्राप्त करता है।' सचित्तादि का लाभ, दूसरे वर्ष में, प्रवाचक का होता है। यह ५४०९.पुव्वुद्दिवे तस्सा, पच्छुद्दिढे पवाययंतस्स। दसवां विभाग है। संवच्छरम्मि पढमे, पडिच्छए जं तु सच्चित्तं॥ ५४१६.पुव्वं पच्छुद्दिवे, पडिच्छिगा जं तु होति सच्चित्तं। जीवित अवस्था में आचार्य ने प्रतीच्छक को जो श्रुत संवच्छरम्मि पढमे, तं सव्वं पवाययंतस्स॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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