________________
छठा उद्देशक
१०. शैक्ष
इन दसों की उपस्थापना प्रथम तथा चरमतीर्थंकर ने कही है।
६४१२.जे य पारंचिया वुत्ता, अणवट्टप्पा य जे विदू । दंसणम्मिय वंतम्मिं चरित्तम्मि य केवले ॥ चियत्तकिच्चे, जीवकाए समारभे ।
भणिया ||
६४१३. अदुवा
सेहे छट्टे बुत्ते, जस्स
जस्स उवट्ठावणा
१. जो सामान्यतः पारांचिक कहे गए हैं।
२. जो विद्वान् अनवस्थाप्य हैं।
३. जिसने संपूर्ण दर्शन को वान्त कर दिया है।
४. जिसने संपूर्ण चारित्र को वान्त किया है। ५. अथवा जो त्यक्तकृत्य है-जीवकाय का समारंभ करता है। ६. शैक्ष।
इन छहों की उपस्थापना दूसरे आदेश में कही है। ६४१४. दंसणम्मि य यंतम्मिं चरितम्मि य केवले । चियत्तकिच्चे सेहे य उवद्वप्पा य आहिया ॥ १. जिसने संपूर्ण दर्शन को वान्त कर दिया है।
२. जिसने संपूर्ण चारित्र को वान्त कर दिया है। ३. त्यक्तकृत्य ।
४. शैक्ष
।
ये चारों उपस्थापनायोग्य हैं, ऐसा कहा है। यह तीसरा आदेश है।
६४१५. केवलगहणा कसिणं, जति वमती दंसणं चरित्तं वा । तो तस्स उबडवणा, देसे वंतम्मि भयणा तु ॥ दर्शन और चारित्र के साथ केवल पद का ग्रहण संपूर्ण अर्थ में है। यदि दर्शन और चारित्र का संपूर्ण वमन होता है तो उसकी उपस्थापना होती है। यदि देशतः वमन होता है तो उपस्थापना हो भी सकती है और नहीं भी ।
६५१६. एमेव य किंचि पदं, सुयं व असूयं व अप्पदोसेणं । अविकोवितो कहितो, चोदिय आउट्ट सुद्धो तु ॥ बिना विमर्श किए ऐसे ही कोई कवाग्रह आदि दोष रहित अगीतार्थ मुनि किसी के समक्ष किंचित् सूत्रार्थविषयक पद, श्रुत अथवा अश्रुत को अन्यथारूप में कहता है और गुरु उसको वैसी वितथप्ररूपणा न करने की प्रेरणा देते हैं और यदि वह उसे सम्यग्रूप से स्वीकार कर लेता है तब वह मिथ्यादुष्कृत मात्र से शुद्ध हो जाता है। ६४१७. अणाभोएण
मिच्छत्तं, सम्मत्तं तमेव तस्स पच्छितं जं मग्गं
Jain Education International
पुणरागते । पडिवज्जई ॥
६७३
कोई श्राद्ध अजानकारी से निह्नव के पास प्रव्रजित हो गया अर्थात् वह शुद्ध दर्शन को वान्त कर मिथ्यात्व को प्राप्त हो गया। ज्ञात होने पर वह पुनः शुद्ध दर्शनी के पास उपसम्पन्न होता है। उसके लिए वही प्रायश्चित्त है कि वह शुद्ध मार्ग में आ गया। उसका व्रतपर्याय पूर्ववत् रहता है, पुनः उपस्थापना नहीं होती।
६४१८. आभोगेण मिच्छत्तं,
सम्मत्तं पुणरागते । जिण थेराण आणाए, मूलच्छेज्जं तु कारए । जो जानता हुआ भी मिथ्यात्व को प्राप्त हो गया अर्थात् निह्नवों के पास प्रव्रजित हो गया, वह पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त होता है, उसे जिनेश्वर तथा स्थविरों की आज्ञा से मूलच्छेच प्रायश्चित्त देना चाहिए, मूलतः उपस्थापना देनी चाहिए। ६४१९. छण्हं जीवनिकायाणं, अणप्पज्झो तु विराहओ । आलोइय-पडिक्कंतो, सुद्धो हति संजओ ॥ जो मुनि क्षिप्तचित्त आदि होने के कारण अनात्मवश स्थिति में षड्जीवनिकाय की विराधना करता है, फिर वह संयत गुरु के पास आलोचना कर प्रायश्चित्त ( मिथ्यादुष्कृत) लेकर शुद्ध हो जाता है। ६४२०.छण्हं जीवनिकायाणं, अप्पज्झो उ विराहतो । आलोइय-पडिक्कंतो, मूलच्छेज्जं तु कारए ॥ जो मुनि आत्मवश होकर षड्जीवनिकाय की विराधना करता है, उसे आलोचना और प्रतिक्रमण कर लेने के पश्चात् मूलच्छेद्य प्रायश्चित्त कराए।
६४२९. जं जो उ समावन्नो, जं पाउम्मं व जस्स वत्थुस्स
तं तस्स उ दायव्वं, असरिसदाणे इमे दोसा ॥ जिसने जो प्रायश्चित्त तपोई या छेदाई प्राप्त किया है तथा जिस वस्तु व्यक्ति के जो प्रायश्चित्त प्रायोग्य है, उसको वह देना चाहिए। असदृश अर्थात् अनुचित प्रायश्चित्त देने पर ये दोष होते हैं।
६४२२. अप्पच्छित्ते य पच्छिलं, पच्छिले अतिमत्तया ।
धम्मस्साssसायणा तिव्वा, मग्गस्स य विराहणा ॥ जो अप्रायश्चित्ती को प्रायश्चित्त देता है और प्रायश्चित्ती को अतिमात्रा में प्रायश्चित्त देता है, वह धर्म की तीव्र आशातना करता है और मार्ग मोक्ष मार्ग की विराधना करता है।
६४२३. उस्सुतं ववहरतो, कम्मं बंधति चिक्कणं । संसारं च पवड्ढेति, मोहणिज्जं च कुव्वती ॥ उत्सूत्र से व्यवहार करता हुआ अर्थात् सूत्रातिरिक्त प्रायश्चित्त देता हुआ वह चिकने कर्मों का बंधन करता है वह संसार को बढ़ाता है और मोहनीयकर्म का बंध करता हैं।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org