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________________ छठा उद्देशक गुह्यांग विषयक उन्माद होने पर किसी दास आदि को मद्य पिलाकर अपावृत सुलाकर उसके गुह्यांग को पूति मद्य से खरंटित करने पर मक्खियां भिनभिनाने लगती हैं। साध्वी को वह अवस्था दिखाने पर उसको विराग हो जाता है। उवसग्गपत्तं निग्गंथिं निग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नाइक्कमइ॥ (सूत्र १४) उवालन ६२६८.मोहेण पित्ततो वा, आतासंवेतिओ समक्खाओ। एसो उ उवस्सग्गो, अयं तु अण्णो परसमुत्थो॥ मोह से अथवा पित्त से जो उन्मत्त होता है उसे आत्म- संवेदिक (आत्मा द्वारा आत्मा को दुःखोत्पादक) उपसर्ग कहते हैं। उससे अन्य परसमुत्थ उपसर्ग है। ६२६९.तिविहे य उवस्सग्गे, दिव्वे माणुस्सए तिरिक्खे य। दिव्वे य पुव्वभणिए, माणुस्से आभिओग्गे य॥ उपसर्ग के तीन प्रकार हैं-दिव्य, मानुष्य और तैरश्च। दिव्य उपसर्गों के विषय में पहले कहा जा चुका है। मनुष्यकृत तथा आभियोग्य अर्थात् अभियोगजनित उपसर्गों को । कहा जा रहा है। ६२७०.विज्जाए मंतेण व, चुण्णेण व जोतिया अणप्पवसा। अणुसासणा लिहावण, खमए मधुरा तिरिक्खाती। विद्या, मंत्र या चूर्ण से योजित होने पर कोई साध्वी अनात्मवश हो जाती है। विद्या आदि का प्रयोग करने वाले व्यक्ति को अनुशिष्टि द्वारा समझाना चाहिए। यदि न समझे तो प्रतिविद्या के द्वारा विद्वेषण उत्पन्न करना चाहिए। 'लिहावण' अर्थात् उस व्यक्ति के सागारिक-लिंग को विद्या के प्रयोग से आलेखित कर उस साध्वी को दिखाए। उसके बीभत्स रूप को देखकर वह विरक्त हो जाती है। एक बार मथुरा में बोधिक स्तेनों ने श्रमणियों को उपसर्ग दिए तथा । क्षपक ने उनका निवारण किया। यह मनुष्यकृत उपसर्ग है। तिर्यञ्चकृत उपसर्गों का साध्वियां स्वयं निराकरण करे। ६२७१.विज्जादऽभिओगो पुण, एसो माणस्सओ य दिव्वोय। तं पुण जाणंति कहं, जति णामं गेण्हए तस्स॥ विद्या आदि से अभियोग होता है। वह दो प्रकार का हैमानुषिक और दैविक। यह अभियोग मानुषिक है या दैविक- यह कैसे जाना जाता है? अभियोजित साध्वी जिसका नाम लेती है वह उसके द्वारा कृत है-ऐसा जानना चाहिए। १. एवमग्नेर्भूतादिप्रयुक्तस्यौषधमग्निः। ६२७२.अणुसासियम्मि अठिए, विदेसं देति तह वि य अठंते। जक्खीए कोवीणं, तीसे पुरओ लिहावेंति॥ जो विद्या आदि से अभियोजित करता है उसको अनुशासित करने पर भी वह यदि विरत नहीं होता है तो साध्वी के प्रति उसके मन में विद्वेष पैदा किया जाता है। फिर भी यदि वह व्यक्ति नहीं मानता है तो विद्याप्रयोग से कुत्ती के कौपीन (गुह्यांग) को चाटते हुए कुत्ते की छवि उस साध्वी को दिखाते हैं। वह विरक्त हो जाती है। ६२७३.विसस्स विसमेवेह, ओसहं अग्गिमग्गिणो। ___मंतस्स पडिमंतो उ, दुज्जणस्स विवज्जणं॥ विष की औषधि विष ही है, अग्नि का औषध है अग्नि और मंत्र का निवारण है प्रतिमंत्र। दुर्जन का औषध है उसका विवर्जन। ६२७४.जइ पुण होज्ज गिलाणी, णिरुब्भमाणी उ तो से तेइच्छं। संवरियमसंवरिया, उवालभंते णिसिं वसभा।। विद्या द्वारा अभियोजित उस साध्वी को उसके अभिमुख जाती हुई को रोका जाता है तो वह ग्लान हो जाती है तब उसकी चिकित्सा संवृत रूप से अर्थात् किसी को ज्ञात न हो, उस प्रकार से की जाती है। यदि वह असंवृत अर्थात् जिसके द्वारा अभियोजित हुई है उसके सम्मुख होती है तो वृषभ मुनि रात्री में उस व्यक्ति को उपालंभ देते हैं, डराते हैं, पीटते हैं, जिससे वह उस साध्वी को छोड़ देता है। ६२७५.थूभमह सड्डिसमणी, बोहिय हरणं तु णिवसुताऽऽतावे। मज्झेण य अक्कंदे, कयम्मि जुद्धेण मोएति॥ स्तूप महोत्सव के अवसर पर श्रमणियों के साथ श्राविकाएं भी गईं। चोरों ने उनका अपहरण कर लिया। एक साधु (पूर्व राजकुमार) वहां समीप में ही आतापना ले रहा था। चोर उन स्त्रियों को उसके मध्य से ले जा रहे थे। श्राविकाओं ने साधु को देख आक्रन्दन किया। साधु (पूर्व राजकुमार) ने चोरों के साथ युद्ध कर उन्हें मुक्त करा डाला। ६२७६.गामेणाऽऽरण्णेण व, अभिभूतं संजतिं तु तिरिगेणं। थद्धं पकंपियं वा, रक्खेज्ज अरक्खणे गुरुगा। गांव के अथवा अरण्य के तिर्यञ्चों से अभिभूत कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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