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संयती भय से स्तब्ध, प्रकंपित हो रही हो तो उसकी रक्षा करनी चाहिए। यदि रक्षा नहीं की जाती तो उस श्रमण को चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
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साहिगरणं निम्गंथिं निम्गंथे गिण्हमाणे
वा अवलंबमाणे वा नाइक्कमइ ॥
(सूत्र १५)
६२७७. अभिभवमाणो समणिं, परिग्गहो वा से वारिते कलहो। किं वा सति सत्तीए, होइ सपक्खे उविक्खाए । किसी श्रमणी का अभिभव करने वाले गृहस्थ को अथवा उसके परिजन को वारित करने पर वह कलह करता है। तो मुनि उस कलह का उपशमन करे, उपेक्षा न करे। उस शक्ति से क्या प्रयोजन जो स्वपक्ष की उपेक्षा करे ? कोई प्रयोजन नहीं।
६२७८. उप्पण्णे अहिगरणे, ओसमणं दुविहऽतिक्रमं दिस्स ।
अणुसासण भेस निरंभणा य जो तीए परिपक्खो ॥ संयती का गृहस्थ के साथ अधिकरण- कलह उत्पन्न होने पर उसका व्यवशमन करना चाहिए क्योंकि वह गृहस्थ अनुपशांत रहकर दो प्रकार से अतिक्रम कर सकता हैसंयती का संयमभेद तथा जीवितभेद कर सकता है। यदि वह गृहस्थ संयती का प्रतिपक्ष हो तो उसे अनुशिष्टि देकर शांत करे, भय दिखाकर या निरंभण कर उसका निवारण करना चाहिए।
सपायच्छित्तं निग्गंथिं निग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नाइक्कमइ ॥ (सूत्र १६)
६२७९. अहिगरणम्मि कयम्मिं खामिय समुपठिताए पच्छित्तं । तप्पढमताए भएणं, होति किलंता व वहमाणी ॥ अधिकरण करके, क्षमायाचना कर समुपस्थित साध्वी को प्रायश्चित्त दिया जाता है। प्रायश्चित्त को प्राप्त कर वह प्रथमतः भय से विषण्ण हो जाती है अथवा प्रायश्चित्त को वहन करती हुई वह क्लान्त हो जाती है।
६२८०. पायच्छिते दिण्णे भीताए विसज्जणं किलंताए । अणुसद्धि वहंतीए भएण खित्ताह तेइच्छं ॥ जो साध्वी प्रायश्चित्त देने पर भीत या क्लान्त हो जाती
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बृहत्कल्पभाष्यम्
है, उसको प्रायश्चित्त से मुक्त कर देना चाहिए। यदि वह प्रायश्चित्त वहन करती हुई क्लान्त होती है तो उसे कहना चाहिए - डरो मत। हम तुम्हारा सहयोग करेंगे। यदि वह भय से सिसचित्त हो जाए तो उसकी चिकित्सा करनी चाहिए।
भत्त- पाणपडियाइक्खियं निम्गंथिं निम्गंथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नाइक्कमइ ॥
(सूत्र १७)
६२८१.पच्छित्तं इत्तिरिओ, होह तवो वण्णिओ य जो एस। आवकथितो पुण तवो, होति परिण्णा अणसणं तु ॥ प्रायश्चित्तरूप तप जो पूर्वसूत्र में वर्णित है वह इत्वर तप है जो परिज्ञा रूप तप अर्थात् अनशन है वह यावत्कथिक होता है।
६२८२. अ वा हेडं वा समणीणं विरहिते कहेमाणो ।
मुच्छाए विपडिताए, कप्पति गहणं परिण्णाए । अशिव आदि के कारण श्रमणियों से विरहित होकर एक साध्वी अकेली रह गई। उसने भक्तप्रत्याख्यान कर लिया। निर्ग्रन्थ उसे अर्थ और हेतु कह रहा था । मूर्च्छा से वह नीचे गिर पड़ी। अनशन में उस साध्वी को ग्रहण करना, उसे अवलंबन देना निर्ग्रन्थ को कल्पता है।
६२८३. गीतऽज्जाणं असती,
पाणग भत्त समाही,
सव्वाऽसतीए व कारण परिण्णा ।
कहणा आलोत धीरवणं ॥ गीतार्थ आर्यिकाओं के अभाव में अथवा अशिव आदि के कारण सभी आर्थिकाओं के अभाव में एकाकिनी साध्वी ने भक्तप्रत्याख्यान कर लिया। वह यदि दुःख पा रही हो तो उसकी समाधि के लिए भक्तपान लाकर देना चाहिए। उसे धर्मकथा कहनी चाहिए। उसे आलोचना दिलानी चाहिए तथा उसे धैर्य बंधाना चाहिए।
६२८४. जति वाण णिव्वहेज्जा,
असमाही वा वि तम्मि गच्छमि । करणिज्जं अण्णत्थ वि,
ववहारो पच्छ सुद्धा वा ॥ यदि वह अनशन का निर्वहण न कर सके, उस गच्छ में उसकी असमाधि हो तो उसे अन्यत्र ले जाकर जो उचित हो
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