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छठा उद्देशक
वह करना चाहिए। उसे अनशनभंग करने का व्यवहार- प्रायश्चित्त देना चाहिए। यदि वह स्वगच्छ में असमाधि के कारण अन्यत्र गई हो तो वह 'मिथ्यादुष्कृत' मात्र से शुद्ध हो जाती है।
अद्वजायं निग्गंथिं निग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नाइक्कमइ॥
(सूत्र १८)
६२८९.अपरिग्गहियागणियाऽ
विसज्जिया सामिणा विणिक्खंता। बहुगं मे उवउत्तं,
__ जति दिज्जति तो विसज्जेमि॥ एक अपरिग्रहगणिका एक व्यक्ति के साथ रहती थी। वह व्यक्ति देशान्तर चला गया। उसने उस गणिका का विसर्जन नहीं किया। कालान्तर में वह प्रवजित हो गई। एक बार वह स्वामी देशान्तर से आ गया और स्थविर से कहा-इसने मेरा बहुत सारा धन खाया है, उसका उपभोग किया है। वह यदि मुझे मिल जाता है तो मैं इसका विसर्जन करूंगा। अन्यथा नहीं। ६२९०.सरभेद वण्णभेदं, अंतद्धाणं विरेयणं वा वि।
वरधणुग पुस्सभूती, गुलिया सुहमे य झाणम्मि। तब उसका गुटिका के प्रयोग से स्वरभेद, वर्णभेद कर देते हैं, उसे अन्यग्राम में भेजकर अन्तर्धान कर देते हैं, विरेचन आदि देकर ग्लान बना देते हैं-यह सारा देखकर वह उसे छोड़ देता है। अथवा वरधनु और पुष्यभूति आचार्य सूक्ष्म ध्यान में प्रवेश कर मृतवत् हो गए। यह देखकर उनको
६२८५.वुत्तं हि उत्तमढे, पडियरणट्ठा व दुक्खरे दिक्खा ।
इंती व तस्समीवं, जति हीरति अट्ठजायमतो॥ यह पहले कहा जा चुका है कि उत्तमार्थ-अनशन ग्रहण करने वाले को तथा यह मेरी सेवा करेगी इस दृष्टि से दासी को दीक्षित किया जा सकता है। वह अनशन करने वाली साध्वी के पास आ रही हो और तब मार्ग में चोर उसका अपहरण कर ले उसके लिए अर्थजात (धन) की आवश्यकता होती है। ६२८६.अद्वेण जीए कज्जं, संजातं एस अट्ठजाता तु।
तं पुण संजमभावा, चालिज्जंती समवलंबे॥ जिसका कार्य अर्थ से उत्पन्न हुआ है वह है अर्थजाता। जो दासी संयमभाव से चाल्यमान है, उसको सम्यग् अवलंबन दे, सहायता करे। ६२८७.सेवगभज्जा ओमे, आवण्ण अणत्त बोहिये तेणे।
एतेहि अट्ठजातं, उप्पज्जति संजमठिताए॥ संयम में स्थित साध्वी के भी इन कारणों से अर्थजात उत्पन्न होता है, आवश्यक होता है। सेवक भार्या के विषय में, दुर्भिक्ष में, आवण्ण-दासत्व की अवस्था में, अणत्त-ऋणात होने पर, बोधिक-अनार्य म्लेच्छ, स्तेनों द्वारा अपहरण अवस्था में। ६२८८.पियविप्पयोगदुहिया, णिक्खंता सो य आगतो पच्छा।
अगिलाणिं च गिलाणिं, जीवियकिच्छं विसज्जेति॥ एक राजसेवक ने अपनी भार्या को छोड़ दिया। वह अपने प्रिय पति के विप्रयोग से दुःखी होकर प्रवजित हो गई। कालान्तर में वह सेवक स्थविर के पास आकर अपनी पत्नी की मार्गणा करता है। तब स्थविर ने उस अग्लान साध्वी को ग्लानरूप में प्रस्तुत किया। सेवक ने उसे देखकर सोचा यह अब कष्ट से जीवित रहेगी। उसने उसका विसर्जन कर दिया। १. ब्रह्मदत्त हिण्डी।
६२९१.अणुसिट्ठिमणुवरंतं, गति णं मित्त-णातगादीहिं।
एवं पि अठायंते, करेंति सुत्तम्मि जं वुत्तं॥ उस पुरुष को अनुशिष्टि दी जाती है। यदि वह इससे भी उपरत नहीं होता है तो उसके मित्रों तथा ज्ञातियों को यह बात कही जाती है। इससे भी यदि वह नहीं मानता है तो सूत्र में जो कहा है, उसका अवलंबन लेना चाहिए। ६२९२.सकुडुबो मधुराए, णिक्खिविऊणं गयम्मि कालगतो।
ओमे फिडित परंपर, आवण्णा तस्स आगमणं॥ मथुरा नगरी में एक वणिक् अपने पूरे कुटुम्ब के साथ प्रव्रजित हो गया। उसने अपनी एक छोटी लड़की को अपने मित्र को सौंपकर वहां से प्रस्थान कर दिया। कालान्तर में वह मित्र कालगत हो गया। दुर्भिक्ष होने पर वह लड़की वहां से चली गई। वह परंपरा से दासत्व को प्राप्त हो गई। विहार करते-करते उसके मुनि पिता वहां आए और अपनी पुत्री की सारी बात जानकर उसे दासत्व से मुक्त करने का उपाय सोचने लगे। ६२९३.अणुसासण कह ठवणं, भेसण ववहार लिंग जं जत्थ।
दूराऽऽभोग गवेसण, पंथे जयणा य जा जत्थ। सबसे पहले जिस घर में वह दासी है उस पुरुष को समझाना चाहिए। उस पर अनुशासन करना चाहिए। कथा २. आवश्यक नियुक्ति गाथा. १३१७, हारि. टी. प. ७२२।
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