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________________ ६६२ = बृहत्कल्पभाष्यम् प्रसंग से कहना, या स्वयं स्थापित द्रव्य उसे देना, ६२९८.सोऊण अट्ठजाय, अट्ठ पडिजग्गती उ आयरिओ। डराना-धमकाना, राजकुल में व्यवहार करना, लिंग को संघाडगं च देती, पडिजग्गति णं गिलाणं पि॥ बदल कर, जो जहां पूज्य हो वैसा लिंग धारण कर, दूर निधिग्रहण के लिए मार्ग में जाते हुए उस 'अर्थजात' निधि का आभोग, गवेषणा, मार्ग में यतना, जो जहां यतना साधु की बात सुनकर आचार्य अर्थ का उत्पादन करनी हो वह। यह द्वार गाथा है। इसका तात्पर्य इन (संरक्षण) करते हैं। वह यदि अकेला हो तो उसे संघाटक गाथाओं में है। देते हैं। वह यदि ग्लान हो जाता है तो उसके प्रति जागरूक ६२९४.निच्छिण्णा तुज्झ घरे, इसिकण्णा मुंच होहिती धम्मो। रहते हैं। सेहोवट्ठ विचित्तं, तेण व अण्णेण वा णिहितं॥ ६२९९.काउं णिसीहियं अट्ठजातमावेदणं गुरूहत्थे। उस व्यक्ति से कहे यह ऋषिकन्या है। तेरे घर से दाऊण पडिक्कमते, मा पेहंता मिया पासे॥ दुर्भिक्ष आदि मिट गया है। इसको मुक्त कर दे, तुझे धर्म नैषेधिकी करके गुरु को अर्थजात का आवेदन कर, होगा। कोई शैक्ष वहां आया। उसने विविध प्रकार का उसको गुरु के हाथ में देकर प्रतिक्रमण करता है। वह उस अर्थजात कहीं स्थापित कर रखा है। वह द्रव्य उस व्यक्ति अर्थजात को अपने पास इसलिए नहीं रखता कि मृग को लाकर दिया जाता है। अथवा उस पिता ने या अन्य की भांति अज्ञानी अगीतार्थ मुनि उसे देखते हुए भी न व्यक्ति ने प्रव्रज्या लेते समय द्रव्य स्थापित किया था, उसे जान सके। लाकर दिया जाता है। ६३००.सण्णी व सावतो वा, केवतितो दिज्ज अट्ठजायस्स। ६२९५.नीयल्लगाण तस्स व, भेसण ता राउले सतं वा वि। पुव्वुप्पण्ण णिहाणे, कारणजाते गहण सुद्धो। ___ अविरिक्का मो अम्हे, कहं व लज्जा ण तुज्झं ति॥ जहां संज्ञी-सिद्धपुत्र या श्रावक हो, वहां उसको सारी अपने स्वजनों को भयभीत करना चाहिए। उन्हें कहना बात बताए। उसको प्रज्ञापित करने पर वह द्रव्यार्थी साधु को चाहिए-मैंने जब प्रव्रज्या ली थी, तब हम सब साथ में थे। अर्थजात का कितना ही भाग दे सकता है। पूर्वोत्पन्न निधान धनमाल का विभाजन नहीं किया था। तुमको लज्जा क्यों नहीं से कारणवश ग्रहण करने वाला भी शुद्ध है। आई जब मेरी पुत्री दासी बनकर रहने लगी? अथवा जिसके ६३०१.थोवं पि धरेमाणी, कत्थइ दासत्तमेइ अदलंती। अधीन वह पुत्री है, उस व्यक्ति को कहना चाहिए-मैं तुमको परदेसे वि य लब्भति, वाणियधम्मे ममेस त्ती॥ शाप दूंगा, जिससे तुम नष्ट हो जाओगे। इतने पर भी यदि अवशिष्ट थोड़ा ऋण भी धारण करती हुई कोई स्त्री ऋण वह उसे मुक्त नहीं करता है तो राजकुल में शिकायत करनी न दे सकने के कारण किसी देश में दासत्व को स्वीकारती चाहिए। यदि उसे स्वजनों द्वारा अपना हिस्सा मिल जाता है है। उसको स्वदेश में दीक्षा नहीं दी जाती। परदेश में जाने पर तो उसे देकर कन्या को छुड़ा लेना चाहिए। अज्ञातरूप में वह दीक्षित हो जाती है। परदेश में गया हुआ ६२९६.नीयल्लएहि तेण व, सद्धिं ववहार कातु मोदणता। वह वणिक उसे देखकर अपना अधिकार जताता है। वहां यह जं अंचितं व लिंगं, तेण गवेसित्तु मोदेइ॥ न्याय है-परदेश में भी वणिक् अपने प्राप्तव्य को प्राप्त कर स्वजनों तथा उस व्यक्ति के साथ व्यवहार का आश्रय सकता है। इस प्रकार वाणिज्य-धर्म के अनुसार वह कहता लेकर कन्या को मुक्त कराना चाहिए। वैसा न होने पर जहां है-यह मेरी दासी है, इसे मैं नहीं छोडूंगा। जो लिंग अर्चित हो उस लिंग को धारण कर, उनमें जो ६३०२.नाहं विदेसयाऽऽहरणमादि विज्जा य मंत जोए य। महान्त हैं उनसे गवेषणा कराकर मुक्त करना चाहिए। निमित्ते य राय धम्मे, पासंड गणे धणे चेव॥ ६२९७.पुट्ठा व अपुट्ठा वा, चुतसामिणिहिं कहिंति ओहादी। द्वार गाथा-मैं वह नहीं, विदेश, आहरण आदि, विद्या, घेत्तूण जावदढे, पुणरवि सारक्खणा जतणा।। ___मंत्र, योग, निमित्त, राजा, धर्म, पाषंड, गण, धन। विस्तार अथवा अवधिज्ञानी या विशिष्ट ज्ञानियों द्वारा पूछने आगे की गाथाओं में। पर या बिना पूछे ही च्युतस्वामी की निधि का कथन ६३०३.सारिक्खएण जंपसि, जाया अण्णत्थ ते वि आमं ति। किए जाने पर, जितने अर्थ का प्रयोजन हो, उतना अर्थ उस बहुजणविण्णायम्मि, थावच्चसुतादिआहरणं ।। निधि से निकाल कर, पुनः उस निधि का संरक्षण करना वह वणिक् से कहे-मैं अन्यत्र विदेश में जन्मी हूं। तुम चाहिए। लौटते समय यतना रखनी चाहिए। यह आगे के सादृश्य से ऐसा कह रहे हो। तब वहां के लोग भी कहते गाथा में है। हैं-हां, यह जो कह रही है, वह सच है। यदि वह साध्वी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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