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तीसरा उद्देशक
करनी चाहिए अर्थात् शैक्ष को व्रतों में स्थापित करना चाहिए।
४३५८. उवठावियस्स गहणं, अहभावे चैव तह य परिभोगे । एक्केकं पायादी, नेयव्वं आणुपुव्व ॥ उपस्थापित के उपकरण का ग्रहण दो प्रकार का होता है-यथाभाव और परिभोग इन दो प्रकार के ग्रहणों से एकएक पात्र आदि आनुपूर्वी से ग्रहण करना चाहिए। ४३५९. पडिसामियं तु अच्छइ, पायाई एस होतऽहाभावो । सव्व पाण- भिक्खा - निल्लेवण पायपरिभोगो ॥ किसी स्वामी ने विवक्षित साधु के निमित्त पात्र आदि ग्रहण किए हैं, पर वह उनका परिभोग नहीं करता, यह यथाभाव है। पात्र का परिभोग उपयुक्त अवसर पर करना जैसे-अच्छे द्रव्य, पानक, भिक्षा, निर्लेपन - आचमन उस पात्र को उपयोग में लेना, यह पात्र का परिभोग है।
४३६०. पाणदय सीयमत्थ्य,
पमज्ज चिलिमिलि निसिज्ज कालगते । मेलन लज्न असह
,
अण सामारिए भोगी ॥ प्राणीदया के लिए मुनि वर्षाकल्प आदि, शीत निवारण के लिए कल्पत्रय, संस्तारक आस्तरण के लिए, रजोहरण प्रमार्जन के लिए, चिलिमिनिका दकतीर पर ज्योतिशाला के लिए, निषद्या बैठने के लिए कालगत (मृत) के आच्छादन के लिए परदा आदि, ग्लान व्यक्ति के लिए चिलिमिलिका, लज्जा निवारण के लिए चोलपट्टक, अक्षम मुनियों के लिए कल्प आदि आवरण, नख आदि काटने के लिए छेदननखहरणिका - इस प्रकार सारा यथायोग औधिक और औपग्रहिक उपकरणों का परिभोग होता है।
४३६१. उवरिं कहेसि हिट्ठा, न याणसी वयणं न होइ एवं तु ।
चतुरो गुरुगा पुच्छा, नासेहिसि तं जहा वेज्जो ॥ जो पहले कहने योग्य था उसे तुम पश्चात् कह रहे हो, इसलिए तुम ग्रहण के स्वरूप को नहीं जानते। तुमने जो यह कहा (गा. ४३३२) कि 'वन्दित्वा विनयेन पृच्छ' - यह अहंकार दूषित वचन है ऐसा नहीं होता, क्योंकि गुरु आदि पूजनीय होते हैं जो ऐसा वचन कहता है उसको चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। क्षपक ने पूछा- 'मुझे प्रायश्चित्त क्यों ?"
१. वैद्य की कथा देखें गाथा ३२५९-३२६० ।
२.
बाले बुड्ढे नपुंसे य, जड्डे कीवे व वाहिए । तेणे रायावगारी य, उम्मत्ते व अदंसणे ॥ दासे दुट्ठे य मूढे य, अणत्ते जुंगिते इय । ओवद्धए य भयए, सेहनिप्फेडिते त्ति य ॥
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उसने कहा- 'तुम्हारे में सिद्धांत का पूरा ज्ञान तो है नहीं, पल्लवग्राही ज्ञान है। अतः तुम भी उस वैद्य की भांति स्वयं और दूसरे का नाश करोगे।"
४३६२. वयणं न वि गव्वभालियं, एलिसवं कुसलेहिं पूजियं ।
अहवा न वि एत्थ लूसिमो, पगई एस अजाणुए जणे ॥ 'मुझे वंदना कर विनय से पूछ' - इस प्रकार के अहंकारभारगुरुक वचन की कुशल व्यक्तियों ने प्रशंसा नहीं की है। अथवा न हम यहां रोष करते हैं क्योंकि अज्ञ व्यक्तियों की यह प्रकृति होती है।
४३६३. मूलेण विणा हु केलिसे, तलु पवले व पणे व सोभई।
न य मूलविभिन्नए घडे, जलमादीणि धलेइ कण्हुई । मूल के बिना प्रवर और सघन (पत्र बहुल) वृक्ष भी कैसे शोभित हो सकता है? इसी प्रकार मूल में फूटा हुआ घट कभी भी जल आदि धारण करने में समर्थ नहीं होता । ४३६४. किं वा मए न नायं, दुविहे महणम्मि जं जहिं कमती ।
भन्नइ अभिनवगहणं, सच्चित्तं ते न विन्नायं ॥ दो प्रकार के ग्रहण में जो अभिनव है या पुराण है, क्या मैं नहीं जाना है, जो तुम कहते हो कि मैं ग्रहण को नहीं जानता ? प्रत्युत्तर में दूसरा कहता है- मैंने यह कहा है कि तुम अभिनव सचित्त ग्रहण को नहीं जानते । ४३६५. अट्ठारस पुरिसेसुं,
वीसं इत्थीसु दस नपुंसेसु । पव्वावणाअणरिहा, अनला एएत्तिया वृत्ता ॥ ४३६६. अडयालीसं एते, वज्जित्ता सेसगाण तिन्हं पि । अभिनवगहणं एवं सच्चित्तं ते न विन्नायं ॥
पुरुषों में अठारह, स्त्रियों में बीस तथा नपुंसकों में दस प्रकार - ये सारे ४८ प्रकार के व्यक्ति दीक्षा के लिए अयोग्य माने गए हैं। ये वीक्षा का पालन करने में असमर्थ होते हैं ?"
इन अडतालीस प्रकारों को छोड़कर तीनों में अर्थात् पुरुष, स्त्री, नपुंसकों में शेष व्यक्ति प्रव्रज्या के योग्य होते हैं । इस सचित्त का अभिनवग्रहण तुम नहीं जानते ।
कप्पइ निग्गंथाण वा निम्गंधीण वा अहारायणियाए सेज्जा - संथार पडिग्गाहित्तए ।
(सूत्र १९)
पंडए बाहए कीवे, कुंभी ईसालुय त्ति य सउणी तक्कमसेवी य, पक्खियापक्खिए या वि ॥ सोगंधिए य आसत्ते, दस एते नपुंसगा । संकिलिट्ठ त्ति साहूणं, पब्वावेडं अकप्पिया ॥
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