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________________ ४५० ४३६७. तुं जहकमेणं, उवही संधारएस उवयंति। घेत्तुं तेसिं पि जदा गहणं, तं पि हु एमेव संबंधो ॥ सभी मुनि रत्नाधिक क्रम से उपकरण ग्रहण कर संस्तारक भूमी पर जाते हैं और अपने उपकरणों को वहां स्थापित करते हैं। संस्तारक ( शयनस्थान) का जब ग्रहण होता है, वह भी यथारात्निक के क्रम से होता है। ४३६८. सेज्जासंथारो या, सेज्जा वसही उ थाण संथारो । पुव्वण्हम्मि उ गहणं, अगेण्हणे लहुगो आणादी ॥ शय्या संस्तारक का अर्थ - शय्या अर्थात् वसति और संस्तारक अर्थात् स्थान- शयनयोग्यस्थान शय्या संस्तारक का ग्रहण पूर्वाह्न में ही कर लेना चाहिए। यदि ग्रहण नहीं किया जाता है तो मासलघु प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष प्राप्त होते हैं। - ४३६९. चोवगपुच्छा दोसा, मंडलिबंधम्मि होइ आगमणं । संजम - आयविराहण, वियालगहणे य जे दोसा ॥ शिष्य ने कहा- आर्यवर! यह उचित है कि पूर्वाह्न में गांव में जाने पर शय्या - संस्तारक भी ग्रहण कर ले। परंतु यदि विकालवेला में ग्राम में आए तो गांव के बाहर आहार- पानी से निवृत्त होकर जाना होता है। आचार्य कहते हैं - इसमें अनेक दोष हैं। मंडलीरचना में भोजन करने पर कुतूहलवश अनेक गृहस्थों का आवागमन होता है। उनके साथ कलह आदि होने पर संयमविराधना और आत्मविराधना होती है। विकाल में वसति का ग्रहण करने से दोष होते हैं तब तन्निष्पन्न प्रायश्चित्त आता है। ४३७०, अइमारेण व हरियं, न सोहए कंटगाइ भत्तद्विय-वोसिरिया, अतिंतु एवं जढा आयाए । दोसा ॥ यदि भक्त-पान लेकर वसति की गवेषणा की जाए तो शिष्य कहता है- अतिभार के कारण ईर्यापथ का शोधन नहीं होता, इससे संयमविराधना होती है तथा कांटों आदि का भी शोधन नहीं होता, इससे आत्मविराधना भी होती है। इसलिए गांव के बाहर ही आहार पानी करके तथा वहीं मलमूत्र की बाधा से निवृत्त होकर गांव में प्रवेश करे, जिससे सारे दोष परित्यक्त हो जाते हैं। ४३७१. आयरियवयण दोसा, दुविहा नियमा उ संजमा-35बाए। बच्चह को वा सामी, असंखडं मंडलीए वा ॥ आचार्य कहते हैं जो ग्राम के बाहर आहार पानी करते हैं उनके नियमतः संयमविराधना और आत्मविराधना रूप दो प्रकार के दोष होते हैं। यदि वहां एकत्रित गृहस्थों को मुनि Jain Education International बृहत्कल्पभाष्यम् कहे - यहां खड़े न रहें, चले जाएं तो गृहस्थ कह सकते हैंक्या तुम इस स्थान के स्वामी हो जो हमें जाने के लिए कह रहे हो ? इस प्रकार कलह हो सकता है। तथा मंडली में भोजन करने पर भी गृहस्थ उड्डाह आदि कर सकते हैं। ४३७२. भत्तगुण सन्झाए, पडिलेहण रत्तिगेण्हणे जं चा पुव्वण्हम्मि उ गहणे, परिहरिया ते भवे दोसा ॥ मंडली में भोजन करना, स्वाध्याय और प्रत्युपेक्षा करना - इन क्रियाओं को देखकर गृहस्थ उड्डाह करते हैं। तब उनसे कलह हो सकता है तथा रात्री में वसति को ग्रहण करना इनसे जो दोष होते हैं उनका प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इसलिए पूर्वाह्न में ही वसति का ग्रहण कर लेना चाहिए। इससे ये सारे दोष परिहृत हो जाते हैं। ४३७३. कोतूहल आगमणं, संखोहेणं अकंठगमणादी । ते चेवऽसंखडादी, वसहिं च न देंति जं चऽन्नं ॥ मंडलीबंध में गृहस्थ कुतूहलवश आते हैं। उस समय किसी मुनि के संक्षोभवश आहार आहारनली में न जाकर अस्रोत में चला जाता है अथवा मुनि का गृहस्थों के साथ कलह आदि दोष होते हैं। यह देखकर मुनि वहां से गांव में जाते हैं। वे गृहस्थ उन मुनियों को वसति नहीं देते और जो देना चाहते हैं उनको भी न देने के लिए प्रेरित करते हैं। ४३७४. भारेण वेयणाए, न पेहई खाणुमाइए दोसे । इरियाइ संजमम्मी, परिगलमाणे य छक्काया ॥ उस स्थिति में भार और वेदना के कारण मुनि स्थाणुकंटक आदि को नहीं देख पाता, इससे आत्मविराधना होती है तथा ईर्यापथ का शोधन न होने पर संयमविराधना होती है। और भक्तपान का परिगलन होने पर छहकाय की विराधना होती है। ४३७५. पविसण मग्गण ठाणे, वेसित्थि दुगंछिए य सुण्णे य । सज्झाए संथारे, उच्चारे चेव पासवणे ॥ ग्राम में विकालवेला में प्रवेश करने पर, वसति की याचना करने पर तथा वेश्यापाटक अथवा जुगुप्सित स्थान में और शून्यगृह में निवास करने, स्वाध्याय तथा संस्तारक करने, उच्चार- प्रस्रवण का व्युत्सर्ग करने से अनेक दोष होते हैं। ४३७६. सावय तेणा दुविधा, विराहणा जा य उवहिणा उ विणा । गुम्मिय महणा ऽऽहणणा, गोणादी चमढणा रतिं ॥ विकालवेला में प्रवेश करने पर श्वापद का भय रहता है। स्तेन दो प्रकार के होते हैं-शरीरापहारी और उपकरणापहारी । उपकरणों का हरण कर लेने पर तृण ग्रहण तथा अग्निसेवन करने पर तन्निष्पन्न दोष लगता है रात्री में गौल्मिक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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