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तीसरा उद्देशक = आरक्षिक पुरुष पकड़ लेते हैं, मारते हैं। रात्री में गाय-बैल आदि का उपद्रव भी हो सकता है। ४३७७.फिडियऽन्नोन्नाऽऽगारण, तेणय रत्तिं दिया व पंथम्मि।
साणाइ वेस कुच्छिय, तवोवणं मूसिगा जं च॥ यदि रात्री में मुनि गांव में पृथक् पृथक् रूप में वसति की गवेषणा करते हैं, बिछुड़े हुए वे एक-दूसरे को बुलाते हैं तो उनको चोर प्रताड़ित कर या उनको या उपकरणों को चुरा लेते हैं अथवा दूसरे दिन मार्ग में उन्हें लूट लेते हैं। कुत्ते उनको उपद्रुत करते हैं। रात्री में वे नहीं जान पाते कि यह वसति वेश्यापाटक के निकट है अथवा यह कुत्सितकुल के पास वाली है। वहां रहने पर लोक उड्डाह करते हुए कहते हैं-'अहो! ये मुनि अपने तपोवन में रह रहे हैं या ये भी जुगुप्सित लोगों की तरह ही हैं जो जुगुप्सित कुल के निकट आकर रह रहे हैं। ४३७८.अप्पडिलेहिय कंटा, बिलं व संथारगम्मि आयाए।
छक्कायाण विराहण, विलीण सेहऽन्नहाभावो॥ अप्रत्युपेक्षित वसति में कंटक तथा बिल हो सकते हैं। वहां संस्तारक बिछाने पर आत्मविराधना तथा षट्काय विराधना हो सकती है। वहां विलीन अर्थात् जुगुप्सित मलमूत्र हो सकता है। इन सारी चीजों से शैक्ष का संयम के प्रति अन्यथाभाव हो सकता है। ४३७९.खाणुग-कंटग-वाला,
बिलम्मि जइ वोसिरिज्ज आयाए। संजमओ छक्काया,
गमणे पत्ते अइंते य॥ अप्रत्युपेक्षित वसति में स्थाणु, कंटक, सर्प आदि के बिल हो सकते हैं। बिलों में यदि मल-मूत्र का विसर्जन होता है तो आत्मविराधना होती है और षट्कायमय भूभाग में व्युत्सर्ग किया जाता है तो संयमविराधना होती है। कायिकी भूमी को जाते, उसे प्राप्त कर व्युत्सर्जन कर पुनः लौटते समय दोनों विराधनाएं हो सकती हैं। ४३८०.मुत्तनिरोहे चक्खं, वच्चनिरोहेण जीवियं चयइ।
उड्डनिरोहे कोट्ठ, गेलन्नं वा भवे तिसु वि॥ मूत्र का निरोध करने से चक्षु, मलवेग का निरोध करने से १. प्रस्तुत गाथा के अन्त में 'जं च' है। वृत्तिकार में इसकी व्याख्या इस प्रकार की है। रात्री में बिछुड़े मुनियों का परस्पर आलाप करने पर अधिकरण होता है, अतः उसका प्रायश्चित्त आता है। तथा रात्री में उपाश्रय में जाने पर हमने कालभूमी की प्रत्युपेक्षा नहीं की, इसलिए वे स्वाध्याय नहीं करते अतः सूत्रार्थ के नाश होने से प्रायश्चित्त आता है। यदि स्वाध्याय नहीं करते तो सामाचारी की विराधना होती है।
(वृ. पृ. ११८४)
मृत्यु हो सकती है। वमन का निरोध करने से कुष्ठ रोग, और तीनों के निरोध से अग्निमांद्य का रोग होता है। ४३८१.पढम-बिइयाए तम्हा, गमणं पडिलेहणा पवेसो य।
पुव्वठियाऽसइ गच्छं, ठवेत्तु बाहिं इमे तिन्नि। इसलिए दिन के प्रथम प्रहर या द्वितीय प्रहर में विवक्षित गांव में गमन कर वहां वसति की याचना कर, उसका प्रत्युपेक्षण तथा उसमें प्रवेश करना चाहिए। यदि वहां पूर्वस्थित साधु हों तो सभी साथ में प्रवेश करें। यदि पूर्वस्थित साधु न हों तो गच्छ को किसी वृक्ष आदि के नीचे बाहर बिठाकर इस प्रकार के दो तीन साधु गांव में प्रवेश करें। ४३८२.परिणयवय गीयत्था, हयसंका पुंछ चिलिमिली दोरे।
तिन्नि दुवे एक्को वा, वसहीपेहट्ठया पविसे॥ परिणतवयवाले तथा अशंकनीय गीतार्थ मुनि गुरु को पूछकर दंडपोंछनक, चिलिमिली और दवरक लेकर तीन, दो या एक मुनि गांव में वसति की प्रत्युपेक्षा करने के लिए प्रवेश करते हैं। ४३८३.बिइयं ताहे पत्ता, पए व पत्ता उवस्सयं न लभे।
सुन्नघर देउले वा, उज्जाणे वा अपरिभोगे॥ द्वितीयपद यहां कहा जा रहा है-उसी समय विकालवेला में मुनि वहां आए अथवा प्रातःकाल गांव में आए, तुरंत उन्हें उपाश्रय नहीं मिला तब वे शून्यघर, देवकुल या जनोपयोगरहित उद्यान में ठहरते हैं। ४३८४.आवाय चिलिमिणीए, रन्ने वा निब्भये समुद्दिसणं।
सभए पच्छन्नाऽसइ, कमढग कुरुया य संतरिया। शून्यगृह आदि में यदि लोगों का आना-जाना होता है तो चिलिमिलिका बांधकर आहार करे। अथवा भयरहित अरण्य में जाकर आहार करे। यदि अरण्य सभय हो तो प्रच्छन्न प्रदेश में और उसके अभाव में 'कमठक'२ कांस्यकटोरे के आकार के पात्र जो भीतर और बाहर-दोनों ओर से सफेद लेप से लिप्त हो, उसमें आहार करे। तदनन्तर 'कुरुया'कुरुकुचा-भोजनान्तर पादप्रक्षालन आदि करे। भोजन करते समय पर्याप्त अन्तराल से बैठे। (तदनन्तर कायिकी संज्ञा से निवृत्त होकर गांव में प्रवेश करे।) २. कमठकेषु-शुक्ललेपेन सबाह्याभ्यन्तरं लिप्तेषु कांस्यकरोकाकारेषु....।
(वृ. पृ. ११८५) ३. कुरुकुचा च-समुद्देशनानन्तरं पादप्रक्षालनादिका बहुना द्रवेण कर्त्तव्या।
(बृ. पृ. ११८५)
द्वितायपर चला
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