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बृहत्कल्पभाष्यम् इसी प्रकार मिश्र विषय का ग्रहण (आचार्य, प्रवर्तिनी की वैसे ही इनके विषय में भी सचित्त-मिश्रभेद से कहना परिपाटी से) आनुपूर्वी से ज्ञातव्य है। क्रम का उल्लंघन कर चाहिए। विपर्यास से ग्रहण करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा ४३५३.अच्चित्तस्स उ गहणं, अभिनवगहणं पुराणगहणं च। आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं।
उवठावणाए गहणं, तह य उवट्ठाविए गहणं॥ ४३४८.मीसगगहणं तत्थ उ, विणिवाओ जो सभंड-मत्ताणं। अचित्त का ग्रहण दो प्रकार का होता है-अभिनव-ग्रहण
__ अहवा वि मीसयं खलु, उभओपक्खऽच्चओ घोरो॥ और पुराण-ग्रहण अर्थात् पहले से गृहीत चोलपट्ट आदि का
जहां सभांड-मात्रक अर्थात् पात्र-मात्रक आदि उपकरण ग्रहण। इसके दो प्रकार हैं-उपस्थापना में ग्रहण और सहित साधु-साध्वी का विनिपात होता है, पानी के प्रवाह में उपस्थापित में ग्रहण। गिरना होता है, उस स्थिति में जो ग्रहण होता है वह ४३५४.ओहे उवग्गहम्मि य, अभिनवगहणं तु होइ अच्चित्ते। मिश्रग्रहण कहलाता है। अथवा उभय-दोनों का अर्थात् साधु
इयरस्स वि होइ दुहा, गहणं तु पुराणउवहिस्स॥ साध्वी का यह रौर्द्र प्रत्यपाय होता है उसमें से जो ग्रहण अचित्त का अभिनवग्रहण दो प्रकार का होता है होता है वह मिश्र माना जाता है।
ओघउपधि विषयक और औपग्रहिकउपधि विषयक। पुराण४३४९.सव्वत्थ वि आयरिओ, आयरियाओ पवत्तिणी होइ। उपधि का ग्रहण भी दो प्रकार का होता है-उपस्थापना-ग्रहण
तो अभिसेगप्पत्तो, सेसेसु तु इत्थिया पढमं॥ और उपस्थापितग्रहण। दोनों अर्थात् आचार्य और प्रवर्तिनी के निस्तारण का ४३५५.जायण निमंतणुवस्सय, परियावन्नं परिट्ठविय नहूँ। सामर्थ्य हो तो, दोनों का निस्तारण करे। यदि न हो तो सर्वत्र
पम्हुट्ठ पडिय गहियं, अभिनवगहणं अणेगविहं।। पहले आचार्य का, फिर प्रवर्तिनी का पश्चात् अभिषेकप्राप्त याचना से, निमंत्रण से, पर्यापन्न-उपाश्रय में पथिकों द्वारा मुनि का। और शेष में स्त्रियों का पहले निस्तारण करना विस्मृत, परिष्ठापित, नष्ट-हृत वस्त्र, विस्मृत, पतित, शत्रु चाहिए।
द्वारा गृहीत वस्त्र-इन वस्त्रों की पुनः प्राप्ति होने पर जो वस्त्र ४३५०.अन्नस्स वि संदेहं, द8 कंपति जा लयाओ वा। गृहीत होते हैं इनको अभिनवग्रहण मानना चाहिए।'
अबलाओ पगइभयालुगाउ रक्खा अतो इत्थी॥ ४३५६.जो चेव गमो हेट्ठा, दूसरे पुरुष की संदेह-आपदा को देखकर भी स्त्रियां
उस्सग्गाईसु वण्णिओ गहणे। लताओं की भांति प्रकंपित होती हैं। क्योंकि अबलाएं-नारियां दुविहोवहिम्मि सो च्चिय, प्रकृति से भयबहुल होती हैं, इसलिए स्त्रियों की पहले रक्षा
कास त्ति य किं ति कीस त्ति॥ करनी चाहिए।
ग्रहण विषयक जो उत्सर्ग की बात पीठिका (गा. ६२२४३५१.जं पुण संभावेमो, भाविणमहियममुकातो वत्थूओ। ६२४) में कही है वही यहां दो प्रकार की उपधि-औधिक
तत्थुक्कम पि कुणिमो, छेओदइए वणियभूया॥ और औपग्रहिक के ग्रहण के विषय में जाननी चाहिए। इसमें जब हम यह संभावना करते हैं कि यह क्षुल्लक अमुक तीन प्रश्न पूछे जाते हैंआचार्य आदि से भी अधिक प्रभावकारी होगा तो हम विधि (१) ये वस्त्र-पात्र किसके अधीन में थे? का उत्क्रमण करके भी उसका बचाव करेंगे। हम वणिक्भूत (२) किसके अधीनस्थ होंगे हैं, अतः हम उसमें छेद-व्यय से अधिक औदयिक-आय को (३) क्यों दे रहे हो? देखते हैं। क्योंकि वणिक् भी वही व्यापार करता है जिसमें इन तीनों प्रश्नों से वह परिशुद्ध माना जाता है। व्यय अल्प हो और आय अधिक।
४३५७.कोप्पर पट्टगगहणं, वामकराणामियाए मुहपोत्ती। ४३५२.अगणी सरीरतेणे, ओमऽद्धाणे गिलाणमसिवे य। रयहरण हत्थिदंतुन्नएहिं हत्थेहुवट्ठाणं॥
सावयभय रायभए, जहेव आउम्मि गहणं तु॥ पुराणग्रहण के अंतर्गत उपस्थापना ग्रहण की विधि यह अग्नि के संभ्रम में, शरीरस्तेनों के संभ्रम में, अवम- है-कूपरों (कुहनी) से चोलपट्ट ग्रहण करके वाम हाथ की दुर्भिक्ष, मार्ग में, ग्लान के विषय में, अशिव में, श्वापद- अनामिका अंगुली से मुखपोतिका को ग्रहण कर, हाथी भय में, राजभय में भी जैसे अप्काय में ग्रहण किया है दांत की भांति उन्नत हाथों से रजोहरण लेकर उपस्थापना १. उपाश्रय में पर्यापन्न वस्त्र की ग्रहणविधि आगे इसी उद्देशक में बताई जाएगी। परिष्ठापित वस्तु का कारण में पुनः ग्रहण किया जाता है। उसका कथन
व्यवहाराध्ययन में किया जाएगा (वृ. पृ. ११७८)
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