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________________ चौथा उद्देशक प्रथम दिशा में भी व्याघात न हो इसलिए तीन स्थंडिलों की प्रत्युपेक्षा - गांव के निकट, मध्य में तथा दूर करनी चाहिए ये व्याघात हो सकते हैं उस प्रदेश को कोई खेत बना दे, पानी से आप्लावित हो जाए, हरियाली हो जाए, प्राणियों से संसक्त हो जाए, गांव उजड़ जाए, अथवा सार्थ आदि आकर वहां रह जाए। ५५०८. एसणपेल्लण जोगाण व हाणी भिण्ण मासकप्पो वा । भत्तोवधीअभावे, इति दोसा तेण पढमम्मि ॥ ऐसी स्थिति में अन्न-पान आदि का लाभ न होने पर एषणा की प्रेरणा करनी होती है, अन्यथा योगों कीआवश्यक प्रवृत्तियों की हानि होती है, मासकल्प भिन्न हो जाता है। भक्त तथा उपधि के अभाव में ये दोष होते हैं अतः प्रथम दिग्भाग में महास्थंडिल की प्रत्युपेक्षा करनी चाहिए। ५५०९. एमेव सेसिवासु वि, तुमंतुमा कलह भेद मरणं वा । जं पावंति सुविहिया, गणाहिवो पाविहिति तं तु ॥ इसी प्रकार शेष दिशाओं में जो दोष कहे गए हैं, जैसेकलह, तू-तू-मैं-मैं, गणभेव, मरण आदि जो सुविहित मुनि पाते हैं, वह सारा गणाधिपति भी प्राप्त करेंगे। ५५१०. वित्वारा ऽऽयामेणं, जं वत्थं लब्भती समतिरेगं । चोक्ख सुतिगं च सेतं, उवक्कमट्ठा धरेतव्वं ॥ शव प्रच्छादन का वस्त्र ढ़ाई हाथ चौड़ा और चार हाथ लंबा या कुछ और लंबा-चौड़ा जो प्राप्त हो वह ले। वह वस्त्र साफ, सुगंधित तथा सफेद हो । मृत्यु के समय में काम आने वाला ऐसा वस्त्र गच्छ में रखना चाहिए। ५५११. अत्थुरणट्ठा एगं, बिइयं छोढुमुवरिं घणं बंधे। उक्कोसयरं उवरिं, बंधादीछादणट्ठा ॥ गणना के आधार पर वे वस्त्र तीन होते हैं एक वस्त्र मृतक के नीचे बिछाया जाता है। दूसरा वस्त्र मृतक को ढंक कर डोरे से कस कर बांधा जाता है और तीसरा उत्कृष्टतर वस्त्र सबसे ऊपर, बंधनों को आच्छादित करने के लिए, स्थापित किया जाता है। इस प्रकार जघन्यतः तीन वस्त्र और उत्कृष्टतः गच्छ के अनुपात में अधिक भी रखे जा सकते हैं। ५५१२. एतेसिं अम्महणे, चउगुरु दिवसम्मि वण्णिया दोसा । रत्तिं च पढिच्छते, गुरुगा उट्ठाणमादीया ॥ इस प्रकार के वस्त्रों का ग्रहण न करने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त है। दिन में शव को मलिन वस्त्रों में लपेट कर ले जाने पर दोष कहे जा चुके हैं। इन दोषों के भय से यदि रात्री की प्रतीक्षा की जाती है तो इसमें चतुर्गुरुक तथा उत्थान आदि दोष होते हैं। Jain Education International ५७१ ५५१३. उन्झाइए अवण्णो, दुविह नियती य महलक्सणाणं । तम्हा तु अहत कसिणं, धरेंति पक्खस्स पडिलेहा ॥ मलिन और कुचेल वस्त्रों से शव को आच्छादित करने पर लोगों में अवर्णवाद फैलता है मलिनवस्त्रों को देखकर दो प्रकार की निवृत्ति होती है-सम्यक्त्व ग्रहण करने वाले तथा प्रव्रज्या ग्रहण करने वाले प्रतिनिवर्तित हो जाते हैं। इसलिए अहत नया तथा कृत्स्न प्रमाणोपेत वस्त्र सदा रखना चाहिए तथा पक्ष में एक बार उसकी प्रत्युपेक्षा करनी चाहिए। ५५१४. आसुक्कार गिलाणे, पच्चक्खाए व आणुपुव्वीए । दिवसस्स व रत्तीइ व, एगतरे होज्जऽवक्कमणं ॥ कोई मुनि आशुक्कार - आकस्मिक या शीघ्र मरण को प्राप्त होता है, कोई ग्लानत्व के कारण, कोई आनुपूर्वी क्रमशः शरीर परिकर्म के द्वारा भक्त का प्रत्याख्यान कर दिन में या रात में किसी एक काल में अपक्रमण - मरण को प्राप्त होता है। ५५१५. एव य कालगयम्मिं, मुणिणा सुत्त ऽत्थगहितसारेणं । न विसातो गंतव्वो, कातव्व विधीय वोसिरणं ॥ इस प्रकार कालगत होने पर सूत्रार्थ का सार ग्रहण करने वाला मुनि विषाद से ग्रस्त न हो। किन्तु कालगत मुनि का विधिपूर्वक उत्सर्ग करे। ५५१६. आयरिओ गीतो वा, जो व कडाई तहिं भवे साहू | कायव्वो अखिलविही, न तु सोग भया व सीतेज्जा ॥ वहां आचार्य, गीतार्थं या अन्य साधु जो इस प्रकार के कार्य में कृतकरण हो, निपुण हो, वह सारी विधि को संपन्न करे। शोक या भय से विधि के विधान में प्रमाद न करे । ५५१७. सव्वे वि मरणधम्मा, संसारी तेण कासि मा सोगं । जं चप्पणो व होहिति, किं तत्थ भयं परगयम्मि ॥ सभी संसारी जीव मरणधर्मा हैं, इसलिए शोक नहीं करना चाहिए। मृत्यु स्वयं की भी होगी तो फिर पर की मृत्यु पर कौनसा भय ? ५५१८. जं वेलं कालगतो, निक्कारण कारणे भवे निरोधो जग्गण बंधण छेदण, एतं तु विहिं तहिं कुज्जा ॥ जिस बेला में मृत्यु घटित हुई है उसी समय उसका निष्काशन कर देना चाहिए कोई कारण हो तो उसका निरोध भी किया जा सकता है जागरण, बंधन और छेदनयह सारी विधि तब करनी चाहिए। ५५१९. हिम- तेण सावयभया, पिहिता दारा महाणिणादो वा । ठवणा नियगा व तहिं, आयरिय महातवस्सी वा ।। यदि रात्री में बहुत हिमपात हो रहा हो अथवा रात अत्यंत ठंडी हो, चोरों का या श्वापदों का भय हो, नगर के द्वार बंद For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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