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गहाय तं सरीरगं एगंते बहुफासुए पएसे परिद्ववेत्ता तत्थेव उवनिक्खिवियव्वे सिया ॥
(सूत्र २५)
५४९७. तिहिं कारणेहिं अन्नं, आयरियं उद्दिसिज्ज तहिं दुण्णि । मुत्तुं तइए पगयं, वीसुंभणसुत्तजोगोऽयं ॥ तीन कारणों से अन्य आचार्य को उद्दिष्ट करने का कथन किया गया है। दो लक्षणों - अवधावित और अवसन्न - को छोड़कर तीसरे लक्षण - कालगत का प्रसंग है। यह सूत्र का संबंध है।
५४९८. अहवा संजमजीविय, भवग्गहणजीवियाउ
विगए वा ।
अणुस वुत्तो, इमं तु सुत्तं भवच्चाए ॥ अथवा संयमजीवन से या भवग्रहणजीवितव्य से विगत हो जाने पर अन्य आचार्य को उद्दिष्ट करने का कथन पूर्वसूत्र में कहा है। प्रस्तुत सूत्र भवजीवित के परित्याग से संबंधित है।
५४९९. पुव्विं दव्वोलोयण, नियमा गच्छे उवक्कमनिमित्तं । भत्तपरिण्ण गिलाणे, पुव्वुग्गहो थंडिलस्सेव ॥ पहले वहां वास्तव्य गच्छवासी साधु नियमतः उपक्रम - निमित्त-मरण के निमित्त द्रव्य का वहनकाष्ठ का अवलोकन करते हैं। वह मरण भक्तपरिज्ञा अनशन के कारण या ग्लानत्व के कारण हो सकता है। अतः पहले से ही स्थंडिल आदि का प्रत्युपेक्षण करना चाहिए ।
५५००. पडिलेहणा दिसा गंतए य काले दिया व राओ य ।
जग्गण- बंधण- छेयण, एयं तु विहिं तहिं कुज्जा | ५५०१. कुसपडिमाइ णियत्तण, मत्तग सीसे तणाई उवगरणे ।
काउस्सग्ग पदाहिण, अब्भुट्ठाणे य वाहरणे ॥ ५५०२. काउस्सग्गे सज्झाइए य खमणस्स मग्गणा होइ ।
वोसिरणे आलोयण, सुभा - ऽसुभगइ निमित्तट्ठा ॥ सबसे पहले वहनकाष्ठ और स्थंडिल की प्रत्युपेक्षणा करे। फिर दिशा का निर्धारण करे, अनन्तक-मृत के आच्छादन के लिए वस्त्र सदा अपने पास रखे। दिन में या रात्री में कोई भी कालगत हो सकता है, रात्री में शव को रखने पर जागरण, छेदन, बंधण - यह विधि करनी चाहिए ।
नक्षत्र को देखकर कुश की प्रतिमा बनाए, जिस रास्ते से जाए उसी रास्ते से न लौटे, मात्रक में पानी जाए, मृतक का सिर गांव की ओर करे, तृणों को समानरूप से बिछाए, उसके उपकरण पास में रखे, स्थंडिल में कायोत्सर्ग न करे, प्रदक्षिणा
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बृहत्कल्पभाष्यम्
न दे, शव यदि उठ जाए तो वसति को छोड़ दे, जिसका व्याहरण-नामग्रहण करे उसका लुंचन करे, गुरु के पास आकर कायोत्सर्ग करे, स्वाध्यायक और क्षपण की मार्गणा करे, उच्चार आदि मात्रकों का परिष्ठापन करे। शुभाशुभगति को तथा निमित्त को जानने के लिए परिष्ठापित शव का अवलोकन करे। इन सबका विशद वर्णन इस प्रकार है५५०३. जं दव्वं घणमसिणं, वावारजढं च चिट्ठए बलियं ।
वेणुमय दारुगं वा, तं वहणट्ठा पलोयंति ॥ जो द्रव्य वेणुमय या लकड़ी का हो, सघन और चिकना हो, पहले व्यापृत न हो, मजबूत हो और वह गृहस्थ के वहां पड़ा हो तो उस वहन करने योग्य काष्ठ को पहले ही देख ले, महास्थंडिल का भी प्रत्युपेक्षणा कर ले।
५५०४. अत्थंडिलम्मि काया, पवयणघाओ य होइ आसण्णे ।
छड्डावण गहणाई, परुग्गहे तेण पेहिज्जा ॥ अस्थंडिल में शव का परिष्ठापन करने पर षट्काय की विराधना होती है। ग्राम आदि के निकट परिष्ठापन करने से प्रवचनघात होता है। दूसरों के अवग्रह में परिष्ठापित करने पर शव का छर्दापन- बलपूर्वक अन्यत्र निक्षेप हो सकता है तथा ग्रहण - आकर्षण आदि दोष हो सकते हैं। अतः स्थंडिल की प्रत्युपेक्षणा पहले करनी चाहिए । ५५०५. दिस अवरदक्खिणा दक्खिणा य
अवरा य दक्खिणापुव्वा ।
अवरुत्तरा य पुव्वा,
उत्तर पुव्वुत्तरा चैव ॥ शव परिष्ठापन के लिए दिशा का अवलोकन करना चाहिए। सबसे पहले अपरदक्षिणा अर्थात् नैर्ऋती दिशा, उसके अभाव में दक्षिण, तत्पश्चात् पश्चिम, दक्षिणपूर्वआग्नेयी, अपरा - उत्तरा - वायवी, पूर्व, उत्तर, उत्तरपूर्व । यह दिशाओं का क्रम है। इनका परिणाम
५५०६. समाही य भत्त-पाणे, उवकरणे तुमंतुमा य कलहो य ।
भेदो गेलन्नं वा, चरिमा पुण कड्डए अण्णं ॥ प्रथम दिशा (निर्ऋती) में परिष्ठापन करने से भक्त - पान की प्राप्ति और उससे समाधि होती है। दक्षिण दिशा में भक्तपान की अप्राप्ति होती है। पश्चिम दिशा में उपकरणों की प्राप्ति नहीं होती । दक्षिण-पूर्व में करने से तू-तू, मैं-मैं, वायवी दिशा में कलह, पूर्व में करने से गणभेद या चारित्रभेद, उत्तर में ग्लानत्व, चरिमा अर्थात् पूर्वोत्तर में करने से एक साधु की और मृत्यु होती है।
५५०७. आसन्न मज्झ दूरे, वाघातट्ठा तु थंडिले तिन्नि । खेत्तुदय - हरिय- पाणा, णिविट्ठमादी व
वाघाए ॥
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