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= बृहत्कल्पभाष्यम् हों, मृत मुनि महानिनाद-महाजनप्रख्यात हो, उस गांव-नगर आविष्ट हो जाए, प्रांत देवता-प्रत्यनीक देवता उस शरीर में की यह व्यवस्था हो कि रात्री में मृतक को नहीं निकालना। प्रविष्ट हो जाए और शव उठ जाए तो बाएं हाथ में चाहिए, वहां उस मृतक के निजक-संज्ञातक हों और वे कहते परिणामिनी प्रस्रवण लेकर उस कलेवर का सेचन करे और हों कि रात्री में मृतक को न ले जाएं, मृतक आचार्य हो या कहे-'गुह्यक! जागो, जागो! प्रमाद मत करो। संस्तारक से महातपस्वी हो तो रात-रात प्रतीक्षा करनी चाहिए।
मत उठो।' ५५२०.णंतक असती राया, वऽतीति संतेपुरो पुरवती तु। ५५२६.वित्तासेज्ज रसेज्ज व, भीमं वा अट्टहास मुंचेज्जा। ___णीति व जणणिवहेणं, दार निरुद्धाणि णिसि तेणं॥
अभिएण सुविहिएणं, कायव्व विहीय वोसिरणं ।। नंतक-शवाच्छादन वस्त्र के अभाव में दिन में मृतक का व्यन्तर अधिष्ठित वह कलेवर विकरालरूप दिखाकर निष्काशन न करे। राजा अपने अन्तःपुर के साथ या पुरपति डराये, जोर से आवाज करे, भयंकर अट्टहास करे तो भी नगर में प्रवेश करता हो, जनसमूह के साथ नगर से बाहर सुविहित मुनि भयभीत न हो और विधिपूर्वक शव का जाता हो, द्वार बंद हों, इसलिए मृतक को रात्री में परिष्ठापन कर दे। निष्काशित करते हैं।
५५२७.दोण्णि य दिवड्डखेत्ते, दब्भमया पुत्तगऽत्थ कायव्वा। ५५२१.वातेण अणक्वंते, अभिणवमुक्कस्स हत्थ-पादे उ। समखेत्तम्मि य एक्को, अवड्ड अभिए ण कायव्वो॥ ___कुव्वंतऽहापणिहिते, मुह-णयणाणं च संपुडणं॥ मुनि के कालगत होने पर नक्षत्र देखना चाहिए। न देखने
जब तक मृतक का शरीर वायु के द्वारा आक्रान्त-अकड़ पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। यदि नक्षत्र सार्द्ध क्षेत्र नहीं जाता तब तक जीवमुक्त शरीर के हाथ-पैर यथाप्रणिहित अर्थात् ४५ मुहूर्त योग्य (आधा दिन भोग्य) हो तो दर्भमय दो अर्थात् जितने लंबे किए जा सकते हैं उतना करते हैं, मुंह पुत्तलक बनाए जाते हैं। न बनाने पर दो और साधुओं की और नयनों का संपुटन करते हैं।
मृत्यु होती है। यदि नक्षत्र समक्षेत्र अर्थात् तीस मुहूर्त भोग्य ५५२२.जितणिहुवायकुसला, ओरस्सबली य सत्तजुत्ता य। हो तो एक ही पुत्तलक बनाया जाए। यदि नक्षत्र अपार्द्धक्षेत्र
कतकरण अप्पमादी, अभीरुगा जागरंति तहिं॥ पन्द्रहमुहूर्त्त भोग्य अथवा अभीचि नक्षत्र हो तो एक भी वहां जो साधु जितनिद्र हों, उपायकुशल और सबली, पुत्तलक नहीं बनाया जाता।' सत्त्वयुक्त, कृतकरण, अप्रमादी और अभीरु हों, वे वहां ५५२८.थंडिलवाघाएणं, अहवा वि अतिच्छिए अणाभोगा। जागते हुए बैठे रहते हैं।
भमिऊण उवागच्छे, तेणेव पहेण न नियत्ते॥ ५५२३.जागरणट्ठाए तहिं, अन्नेसिं वा वि तत्थ धम्मकहा। स्थंडिल का व्याघात हो जाने पर अथवा विस्मृति के
सुत्तं धम्मकहं वा, मधुरगिरो उच्चसद्देणं॥ कारण स्थंडिल अतिक्रांत हो जाए तो घूमकर आ जाए किन्तु जागरण करने वाले मुनि परस्पर धर्मकथा करे या श्रावकों । उसी मार्ग से न लौटे। को धर्म सुनाये। मधुर तथा उच्चस्वरों में धर्म की ५५२९.वाघायम्मि ठवेडं, पुव्वं व अपेहियम्मि थंडिल्ले। आख्यायिकाओं का परावर्तन करे।।
तह णेति जहा से कमा, ण होति गामस्स पडिहुत्ता। ५५२४.कर-पायंगुढे दोरेण बंधिउं पुत्तीए मुहं छाए। स्थंडिल का व्याघात होने पर अथवा पहले स्थंडिल की
अक्खयदेहे खणणं, अंगुलिविच्चे ण बाहिरतो॥ प्रत्युपेक्षा न करने पर मृतक को एकान्त में रखकर, स्थंडिल हाथों के दोनों अंगूठों तथा दोनों पैरों के दोनों अंगूठों के की प्रत्युपेक्षा कर घुमाकर ले जाए, जिससे शव के पैर गांव डोरा बांधे। मुंह को मुंहपोतिका से आच्छादित करे। अक्षत के अभिमुख न हों। देह में अंगुली के बीच में चीरा दे, बाहर से नहीं। यह ५५३०.सुत्त-ऽत्थतदुभयविऊ, पुरतो घेत्तूण पाणग कुसे य। छेदन है।
गच्छति जइ सागरियं, परिट्ठवेऊण आयमणं ।। ५५२५.अण्णाइट्ठसरीरे, पंता वा देवतऽत्थ उद्वेज्जा। सूत्र-अर्थविद् या तदुभयविद् मुनि मात्रक में पानक और
परिणामि डब्बहत्थेण बुज्झ मा गुज्झगा! मुज्झ॥ कुश लेकर शव के आगे-आगे चलता है। वह पीछे मुड़कर इतना करने पर भी यदि शव अन्य व्यन्तर आदि देव से नहीं देखता। यदि वहां गृहस्थ अधिक हों तो शव का सार्द्ध क्षेत्र के छह नक्षत्र होते हैं-उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, श्रवणा, धनिष्ठा, उत्तराभाद्रपदा, पुनर्वसू, रोहिणी तथा विशाखा। समक्षेत्र नक्षत्र पूर्वभद्रपदा, रेवती। अपार्द्ध क्षेत्र के नक्षत्र-शतभिषग, भरणी, पन्द्रह हैं-अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिर, पुष्य, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, आर्द्रा, अश्लेषा, स्वाति, ज्येष्ठा। (वृ. पृ. १४६४,१४६५)
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