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बृहत्कल्पभाष्यम् ५१७०.अहवा ततिए दोसो, जायइ इयरेसु किं न सो भवति। गुरु के अथवा स्वयं के ज्ञान आदि ग्रहण करने में संलग्न होने
एवं खु नत्थि दिक्खा , सवेययाणं न वा तित्थं। पर यह अन्यान्य कार्यों को संपादित कर सकेगा, चारित्र की शिष्य ने पूछा-जो स्त्री-पुरुष ध्यान-उपवास आदि परिपालना के लिए देशापक्रमण करने पर तथा दुर्भिक्ष और नियमों में उपयुक्त रहते हुए वेद के उदय को धारण करते हैं। अशिव में यह सहायता करेगा-इस बुद्धि से उसे प्रव्रजित वैसे ही अपुमान् अर्थात् नपुंसक यदि वेदोदय को धारण करता है। करता है तो उसको प्रवजित करने में क्या दोष है? ५१७५.एएहिं कारणेहिं, आगाढेहिं तु जो उ पव्वावे।
यदि तीसरे अर्थात् नपुंसक के वेदोदय से दोष होता है तो पंडाईसोलसगं, कए उ कज्जे विगिंचणया। इतर अर्थात् स्त्री-पुरुषों के वेदोदय से दोष क्यों नहीं होगा? इन आगाद कारणों के उपस्थित होने पर जो आपके कथनानुसार किसी भी संसारी जीव की दीक्षा नहीं हो आचार्य पंडक आदि सोलह प्रकार के नपुंसकों को सकती, क्योंकि सभी संसारी जीव सवेदक हैं। दीक्षा के प्रव्रजित करता है, उसे चाहिए कि कार्य के संपन्न हो जाने पर अभाव में तीर्थ की परंपरा नहीं चलती।
उन नपुंसक मुनियों का विवेचन कर दे, उनको संघ से ५१७१.थी-पुरिसा पत्तेयं, वसंति दोसरहितेस ठाणेसु। निकाल दे।
संवास फास दिट्ठी, इयरे वत्थंबदितॄतो॥ ५१७६.दुविहो जाणमजाणी, अजाणगं पन्नवेति उ इमेहिं। आचार्य ने कहा-महिलाएं प्रवजित होकर स्त्रियों अर्थात्
जणपच्चयट्ठयाए, नज्जंतमणज्जमाणे वि॥ साध्वियों के मध्य रहती हैं और पुरुष प्रव्रजित होकर नपुंसक के दो प्रकार हैं-ज्ञायक और अज्ञायक। जो यह पुरुषों-साधुओं के मध्य रहते हैं। वे दोनों दोषरहित स्थान में जानता है कि साधुओं को नपुंसक व्यक्तियों को प्रव्रज्या देना रहते हैं। इतर अर्थात् पंडक यदि साध्वियों के मध्य रहता है । नहीं कल्पता, वह है ज्ञायक और जो यह नहीं जानता, वह है तो संवास से स्पर्श और दृष्टि से दोष होते हैं और मुनियों के अज्ञायक। दीक्षा के लिए उपस्थित दोनों प्रकार के नपुंसकों साथ रहता है तो वे ही दोष होते हैं। यहां बछड़ा और आम्र को आचार्य प्रज्ञापना देते हैं-तुम दीक्षा के लिए अयोग्य हो, का दृष्टांत है।
अतः श्रावकधर्म का पालन करो आदि। ऐसा न चाहने पर(बछड़ा मां को देखकर चूंघना चाहता है और मां गाय ज्ञायक और अज्ञायक-दोनों को जनता के विश्वास के लिए अपने बच्चे को देखकर प्रस्नविता होती है। किसी को आम । आचार्य कटिपट्टक की प्रज्ञापना करते हैं, धारण करने के खाते हुए देखकर मुंह में पानी आ जाता है वैसे ही नपुंसक के लिए कहते हैं। संस्तव से वेदोदय से मैथुन इच्छा उत्पन्न होती है।)
५१७७.कडिपट्टए य छिहली, कत्तरिया भंड लोय पाढे य। ५१७२.असिवे आमोयरिए, रायडुढे भए व आगाढे। धम्मकह सन्नि राउल, ववहार विगिंचणा विहिणा।।
गेलन्न उत्तिमढे, नाणे तह दंसण चरित्ते॥ कटिपट्टक धारण करो, चोटी धारण करो या कैंची या इन कारणों से पंडक को प्रव्रज्या दी जा सकती है- क्षुर से मुंडन करो या लोच कराओ। उसे परतीर्थिकों के अशिव, अवमौदर्य, राजद्विष्ट हो जाने पर, भय, आगाढ़- सिद्धांतों को पढ़ाना चाहिए। कार्य हो जाने पर धर्मकथा ग्लानत्व, उत्तमार्थ अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र में सहायक करनी चाहिए, जिससे वह लिंग को छोड़ दे। यदि वह लिंग होगा। (व्याख्या आगे)
छोड़ना न चाहे तो श्रावकों से कहे, राजकुल में जाकर ५१७३.रायडुट्ठ-भएसुं, ताणट्ठ निवस्स चेव गमणट्ठा। व्यवहार न्याय के लिए कहे। इस प्रकार विधिपूर्वक उसकी
विज्जो व सयं तस्स व, तप्पिस्सति वा गिलाणस्स॥ विगिंचणा करे-संघ से बहिष्कृति कर दे। ५१७४.गुरुणो व अप्पणो वा, नाणादी गिण्हमाण तप्पिहिति। ५१७८.कडिपट्टओ अभिनवे, चरणे देसावक्कमि, तप्पे ओमा-ऽसिवेहिं वा॥
कीरइ छिहली य अम्हऽवेवाऽऽसी। राजा के द्वेषी हो जाने पर, बोधिक स्तेनों का भय उत्पन्न कत्तरिया भंडं वा, होने पर, इनसे त्राण के लिए, राजा आदि के पास गमन करने
अणिच्छे एक्केक्कपरिहाणी॥ के लिए, ग्लानत्व हो जाने पर, पंडक स्वयं वैद्य होने पर कटिपट्टक अभिनव दीक्षित के लिए है। शिर पर चोटी चिकित्सा कर देगा अथवा वैद्य तथा औषधि का प्रतितर्पण धारण करे। वह पूछे कि पूरा मुंडन क्यों नहीं करते? उसे कर उपकार कर सकेगा अथवा मेरे अनशन में सहायक हो कहे-हमारे भी पहले ऐसा ही किया था। मुंडन कर्तरी से या सकेगा, यह सोचकर पंडक को प्रव्रज्या दी जा सकती है। क्षुर से किया जाए। यदि वे ऐसा मुंडन करवाना न चाहे तो
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