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________________ चौथा उद्देशक नपुंसक हैं। ऐसा ही इनका पाखंड है। गोचराग्र में गए हुए उन साधुओं को देखकर उपहास करते हुए लोग कहते हैं - अरे ! यह वही है। दूसरा कहता है नहीं, यह वह नहीं है, दूसरा है। यह उपहास सुनकर घोट-बटुकों आदि के साथ कलह हो सकता है। ५१६४. कीवस्स गोन्न नाम, कम्मुदय निरोहे जायती ततिओ तमिव सो चेव गमो, पच्छित्तुस्सग्ग अववादे ॥ 'क्लीब' यह गौण नाम है, गुणनिष्यन्न नाम है। 'क्लीब्यते इति क्लीबः - मैथुन के अभिप्रायमात्र से जिसका अंगादान विकारग्रस्त हो जाता है और वीर्य के बिन्दु जिससे परिगलित होते रहते हैं वह है क्लीब। यह महामोह के कर्मोदय से होता है अथवा परिगलित होने वाले वीर्य का निरोध करने से यह तीसरा वेद होता है। क्लीब के चार प्रकार है-दृष्टिक्लीब, शब्दकलीब, आदिग्धक्लीब तथा निमंत्रणाक्ली । विपक्ष आदि को विवस्त्र देखकर स्खलित होने वाला दृष्टिक्लब, मैथुन के शब्द को सुनकर स्खलित होने वाला शब्दकलीब, विपक्ष द्वारा उपगूढ़ होने पर स्खलित होनेवाला आदिग्धक्लीब और विपक्ष द्वारा निमंत्रित होने पर स्खलित होने वाला निमंत्रणाक्लीब होता है। इन चारों के विषय में पंडक की भांति ही गम है। इनके वही प्रायश्चित्त तथा अपवाद होते हैं। ५१६५. उदएण वादियस्सा सविकारं जा ण तस्स संपत्ती । तच्चनि असंवुडीए, दिट्टंतो टोड अलभते ॥ मोहोदय से जिसका सागारिक विकारयुक्त हो जाता है तब वह वेद को धारण नहीं कर सकता, जब तक कि प्रतिसेवमान की संप्राप्ति नहीं हो जाती। वह वातिक नपुंसक होता है। एक बौद्ध उपासक नाव में आरूढ़ हुआ । उसके सामने वाले आसन पर एक असंवृत स्त्री आकर बैठ गई। तब उस बौद्ध उपासक का सागारिक स्तब्ध हो गया। वह वेद की उत्कटता से उस स्त्री को पकड़कर जनता के सामने प्रतिसेवना करने लगा। लोग उसे पीटने लगे, १. (१ - ३) पंडक, वातिक और क्लीब की व्याख्या पहले दी जा चुकी है। (४) कुंभी- इसके दो प्रकार हैं (क) जातिकुंभी-जिसकी इन्द्रिय बहुत लंबी होती है। - (ख) वेदकुंभी-उत्कटमोह के कारण प्रतिसेवना के अभाव में जिसका लिंग और वृषण सूज जाते हैं। (५) ईर्ष्यालु प्रतिसेवना को देखकर प्रतिसेवना की इच्छा होना। (६) तत्कर्मसेवी - बीजनिसर्ग हो जाने पर श्वान की भांति लिंग को जीभ से चाटना । (७) शकुनी - वेदोत्कटता से गृहचटक की भांति बार-बार प्रतिसेवना करने वाला । Jain Education International ५३३ फिर भी उसने स्त्री को नहीं छोड़ा। जब बीज का निसर्ग हो गया, तब उसने उसे छोड़ा । प्रतिसेवना के लिए कोई अप्राप्त होने पर निरुद्धवेद वाले नपुंसक के ऐसा होता है। ५१६६. पंडए बाइए कीवे, कुंभी ईसालुए ति य । सउणी तक्कम्मसेवी य, पक्खियापक्खिते ति य ।। ५१६७. सोगंधिए य आसित्ते, वद्धिए चिप्पिए ति य मंतोसहिओवहते, इसिसत्ते देवसत्ते य ॥ नपुंसक के भेद ९. सौगन्धिक १०. आसक्त ११. बर्द्धित १. पंडक २. वातिक ३. क्लीब ४. कुंभी ५. ईर्ष्याल ६. तत्कर्मसेवी ७. शकुनी १५. ऋषिराम ८. पाक्षिक- अपाक्षिक १६. देवशप्स | १२. चिप्पित १३. मंत्रोपहत १४. औषधि-उपहृत इनमें प्रथम दस अप्रव्राजनीय हैं। शेष छह यदि अप्रतिसेवी हों तो प्रवाजनीय हैं।" ५१६८. बससु वि मूलाऽऽयरिए, वयमाणस्स वि हवंति चउगुरुगा । सेसाणं छण्हं पी, आयरिए वदंति चउगुरुगा ॥ जो आचार्य पंडक से आसक्त तक के १० नपुंसकों को प्रव्रज्या देता है उसे प्रत्येक का प्रायश्चित्त आता है मूल जो इन बसों को प्रबजित करने के लिए कहता है उसे चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है । वर्द्धित आदि शेष छह को प्रव्रजित करने वाले आचार्य तथा प्रव्रज्या के लिए कहने वाले को चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। For Private & Personal Use Only ५१६९. थी - पुरिसा जह उदयं, धरेंति झाणोववास - णियमेहिं । एवमपुमं पि उदयं धरिज्ज जति को तहिं दोसो ॥ (८) पाक्षिक-अपाक्षिक-शुक्ल या कृष्ण किसी एक पक्ष में वेद की उत्कटता और दूसरे पक्ष में मन्द । (९) सौगंधिक- सागारिक की सुगंध को शुभ मानने वाला, सागारिक को सूंघने वाला तथा सागारिक को हाथों से मसल कर सूंघने वाला । (१०) आसक्त स्त्री के शरीर से आसक्त । (११) वर्द्धित - जिसके बचपन से ही वृषण काट दिए गए हों। (१२) चिप्पित - जन्मते ही वृषाणों को मसल कर चपटा कर देना । (१३-१६) मंत्र, औषधि, ऋषि और देवता द्वारा शापग्रस्त होने पर पुरुषत्व विलीन हो जाता है। www.jainelibrary.org.
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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