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________________ = ४८५ तीसरा उद्देशक ४७०८.बावीस लभति एए, पडिच्छओ जति य तमभिधारंती। अभिधारमणभिधारे, णायमणातेतरे ण लभे॥ माता से संबंधित चार जन-माता, पिता, भ्राता, भगिनी। पिता से संबंधित चार जन-पिता, माता, भ्राता, भगिनी। माता से संबंधित दो जन-पुत्र और पुत्री। भगिनी का अपत्य-भानेज और भानेजी-ये दो जन। पुत्र का अपत्य-पौत्र और पौत्री। पुत्री का अपत्य-दौहित्र और दौहित्री। ये सारे सोलह होते हैं-४+४+२+२+२+२-१६। इनमें छह जन अनन्तरवल्ली के मिलाने पर बावीस होते हैं। यदि ये बावीस जन प्रतीच्छक की अभिधारणा करते हैं तो उसको ये सारे प्राप्त होते हैं। यदि ये अभिधारणा नहीं करते हैं तो सारे आचार्य के आभाव्य होते हैं। इनसे इतर चाहे अभिधारणा करते हैं या नहीं करते, वे चाहे ज्ञातक हों या अज्ञातक । प्रतीच्छक को प्राप्त नहीं होते। ४७०९.नायगमणायगा पुण, सीसे अभिधारमणभिधारे य। दोक्खर-खरदिट्ठता, सव्वे वि भवंति आयरिए॥ जो शिष्य के ज्ञातक अथवा अज्ञातक हैं, वे शिष्य की अभिधारणा करते हैं या नहीं करते, फिर भी वे सब आचार्य के आभाव्य होते हैं, शिष्य के नहीं। यहां व्यक्षर-खरदृष्टान्त वक्तव्य है। 'दासेण मे खरो कीओ, दासो वि मे खरो वि मे।' ४७१०.पुव्वुप्पन्नगिलाणे, असंथरते य चउगुरू छण्हं। वयमाण एगे संघाडए य छप्पेते ण लभंति॥ एक गांव में गच्छ स्थित है। एक मुनि ग्लान हो गया। उसकी प्रतिचर्या में अनेक साधु व्याप्त हैं। सभी भिक्षा के लिए न जा पाने से पूरी भिक्षा नहीं आई। ऐसी स्थिति में एक शैक्ष आ गया। मुनि ग्लान कार्य में व्याप्त थे अतः शैक्ष की सारसंभाल नहीं कर पाए। इसीलिए भगवान् ने कहा-ऐसी स्थिति में शैक्ष को दीक्षित नहीं करना चाहिए। दीक्षित करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। अतः वे छह प्रकारों में से किसी एक प्रकार से उसे अन्य आचार्य के पास भेज देते हैं। वे उसे मुंडित कर अकेले को अथवा साधुओं के साथ भेजते हैं। ये तीन प्रकार मुंडित शैक्ष के होते हैं। अमुंडित के भी ये ही तीन होते हैं। ये छहों उस शैक्ष को प्राप्त नहीं होते। जिनके पास वह शैक्ष भेजा जाता है, उसी आचार्य का वह आभाव्य होता है। ४७११.आयरिय-गिलाणे गुरुगा, सेहस्सा अकरणम्मि चउलहुगा। परितावणणिप्फण्णं, दुहतो भंगे य मूलं तु॥ शैक्ष को प्रव्रज्या देकर उसकी वैयावृत्य में व्यस्त होकर आचार्य और ग्लान की वैयावृत्य नहीं करते हैं तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। यदि शैक्ष की वैयावृत्य नहीं की जाती है तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। परितापना निष्पन्न प्रायश्चित्त पृथक् आता है। यदि शैक्ष का उन्निष्क्रमण होता है या ग्लान का मरण हो जाता है ये दो भंग हैं। इनके होने पर मूल . प्रायश्चित्त है। ४७१२.संथरमाणे पच्छा, जायं गहिते व पच्छ गेलन्नं । अपव्वइए पव्वइए, संघाडेगे व वयमाणे॥ गच्छ में ग्लान है, परंतु आगाढ़ ग्लान नहीं है तो वे मुनि शैक्ष को प्रव्रजित करते हैं क्योंकि वे शैक्ष और आचार्य दोनों की वैयावृत्य कर सकते हैं। वे सब का संस्तरण कर सकते हैं। पश्चात् आगाढ़ ग्लानत्व हो गया। उसकी सेवा में जो साधु थे वे भिक्षा के लिए नहीं जा पाते थे। जो जाते वे भी सबके लिए पर्याप्त नहीं ला सकते थे। पहले ग्लानत्व नहीं था। प्रव्रजित करने के पश्चात् ग्लानत्व हो गया। उसे छह प्रकारों से भेज देना चाहिए-१. अप्रव्रजितमुंडित २. प्रव्रजित-मुंडित ३. इन दोनों के तीन-तीन प्रकार हैं-संघाटक के साथ, एक साधु के साथ, वयमाण-एकाकी को भेजे। ४७१३.नागाढं पउणिस्सइ, अचिरेणं तं च जायमागाढं। सेहं वट्टावेउं, ण तरंति गिलाणकिच्चं च। पहले अनागाद ग्लानत्व था। शैक्ष आ गया। संतों ने सोचा यह ग्लान मुनि शीघ्र स्वस्थ हो जाएगा। शैक्ष को प्रव्रजित कर दिया। ग्लान आगाढ़ हो गया। साधु शैक्ष को संभालने तथा ग्लानकृत्य करने में असमर्थ हो गए। ४७१४.अपडिच्छणेतरेसिं, जं सेहवियावडा उ पावंति। तं चेव पुव्वभणियं, परितावण-सेहभंगाइ। जिनके पास शैक्ष भेजा गया, यदि वे उसे स्वीकार नहीं करते, उनको चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। जो शैक्षव्यापृत हैं उनको भी वही प्रायश्चित्त है तथा जो पूर्वकथित परितापना, शैक्षभंगादि दोष समूह भी यहां प्रास होता है। शैक्ष वैयावृत्य के अभाव में पलायन कर जाता है, ग्लान प्रतिचर्या न होने के कारण परितप्त होता है। ४७१५.संखडिए वा अट्ठा, अमुंडियं मुंडियं व पेसंती। वयमाणे एग संघाडए य छप्पेए न लभंति॥ मुंडित अथवा अमुंडित शैक्ष को भी संखड़ी के लिए भेजते हैं। वहां भी 'वयमाणी' अर्थात् एकाकी को भेजने पर अथवा एक संघाटक के साथ या छह प्रकार से भेजने पर भी वह उनका आभाव्य नहीं होता। ४७१६.होहिंति णवग्गाई, आवाह-विवाह-पव्वयमहादी। सेहस्स य सागारियं, विदाहिति मा व पेसिंति॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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