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________________ ४८६ बृहत्कल्पभाष्यम् शैक्ष किसी आचार्य के पास गया। वहां आवाह-वधू का वर के घर में आना, विवाह, पर्वतमह, तडागमह, नदीमह आदि होते हैं। वहां शैक्ष का सागारिक-उत्प्रव्राजन हो जाता है। वह विनष्ट हो जाता है। वह विनष्ट न हो, इसलिए उसे छह प्रकारों से भेजते हैं। परन्तु वह शैक्ष छहों का आभाव्य नहीं होता, केवल उनका आभाव्य होता है, जिनके पास भेजा जाता है। ४७१७.गिहियाणं संगारो, संगारं संजते करेमाणे। अणुमोयति सो हिंसं, पव्वावितो जेण तस्सेव॥ शैक्ष गृहस्थ-संबंधी यह संगार-संकेत करता है कि इतने समय के पश्चात् मैं आपके पास प्रव्रजित होऊंगा, संयत भी यह संगार-संकेत देता है कि मैं अमुक दिन तुमको प्रव्रजित करूंगा, यह संकेत करने पर जब तक वह प्रव्रजित नहीं होता, तब तक उसके द्वारा की जाने वाली हिंसा का अनुमोदक वह संयत होता है। शैक्ष को जो प्रव्रजित करता है, वह उसीका आभाव्य होता है। ४७१८.विप्परिणमइ सयं वा, __ परओ ओसण्ण अण्णतित्थी वा। मोत्तुं वासावासं, ण होइ संगारतो इहरा॥ संकेत करने के पश्चात् वह शैक्ष स्वयं विपरिणत हो जाता है या दूसरों से स्वजनों से विपरिणत हो सकता है, या अवसन्नविहारी साधुओं में प्रव्रजित हो जाता है या परतीर्थिक हो जाता है। इसलिए वर्षावास में बिना पुष्ट आलंबन न होने पर न संगार देना चाहिए और न करना चाहिए। ४७१९.संखडि सण्णाया वा, खित्तं मोत्तव्वयं व मा होज्जा। ___एएहिं कारणेहिं, संगार करेंते चउगुरुगा॥ संगार करने का कारण यह है कि उस ग्राम की संखडी को वह छोड़ नहीं सकता तथा उसके ज्ञातक वहां। प्रचुर हैं, उनके आग्रह को वह टाल नहीं सकता। वह क्षेत्र अत्यंत स्निग्ध होने के कारण उसको छोड़ा नहीं जा सकता। इन कारणों से संगार करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। ४७२०.रिण वाहिं मोक्खेउं, कुडंबवित्तिं वऽतिच्छिते गिम्हे। एमादिअणाउत्ते, करिति गिहिणो उ संगारं। ऋण या व्याधि का अपनयन करने के लिए, कुटुंब के निर्वहन के लिए, वृत्ति का संपादन करने के लिए अथवा ग्रीष्मऋतु अतिक्रान्त हो रहा है और वर्षावास का आगमन होने पर-इन सभी कारणों से अनायुक्त होकर गृहस्थ संगार करते हैं। ४७२१.अगविठ्ठो मि त्ति अहं, लब्भति असढेहिं विप्परिणतो वि। चोयंतऽप्पाहेति व, ते वि य णं अंतरा गंतुं॥ संगार करने के पश्चात् अशठ अर्थात् ग्लानकार्य में व्याप्त मुनियों द्वारा अगवेषित होने पर शैक्ष विपरिणत हो जाता है, फिर भी वह उनका ही आभाव्य होता है। वे भी साधु यदा-कदा जाकर उसको प्रेरणा करते हैं और संगार की याद दिलाते हैं और यदि साधुओं के स्वयं जाने की स्थिति न हो तो श्रावकों द्वारा संदेश भेजकर उसे प्रेरित करते हैं। ४७२२.एवं खलु अच्छिन्ने, छिन्ने वेला तहेव दिवसेहिं। वेला पुण्णमपुण्णे, वाघाए होइ चउभंगो॥ यह अच्छिन्न-अनियत संगार की विधि कही गई है। छिन्न संगार की विधि यह है। छिन्न संगार का अर्थ है-क्षेत्र और काल से प्रतिनियत। काल का अर्थ है-वेला या दिवस। वेला पूर्ण या अपूर्ण होने पर व्याघात हो सकता है। उसकी चतुर्भंगी होती है १. संयत के व्याघात गृहस्थ के नहीं। २. गृहस्थ के व्याघात संयत के नहीं। ३. दोनों के व्याघात। ४. दोनों के व्याघात नहीं। ४७२३.मंदट्टिगा ते तहियं च पत्तो, जति मण्णते ते य सढा ण होति। सो लब्भती अण्णगतो वि ताहे, दप्पट्ठिया जे ण उ ते लभंती॥ जिस ग्राम के लिए संकेत किया था, उस ग्राम में शैक्ष पहुंच गया। साधु नहीं पहुंचे। शैक्ष ने सोचा-ये मेरे विषय में मंदार्थी हैं, इसीलिए यहां नहीं पहुंचे हैं। यदि वे साधु अशठ हैं-वजिका आदि में प्रतिबद्ध नहीं हैं, ग्लानकार्य में व्याप्त होने के कारण नहीं पहुंचे हैं तो शैक्ष अन्य आचार्य के पास जाने पर भी उन साधुओं का ही आभाव्य होता है। जो दर्प से वहां स्थित साधु हैं, उन्हें वह नहीं मिलता। जिसने उसे प्रव्रजित किया है, उसी का शिष्य होता है। ४७२४.पंथे धम्मकहिस्सा, उवसंतो अंतरा उ अन्नस्स। अभिधारिंतो तस्स उ, इयरं पुण जो उ पव्वावे॥ मार्ग में जाता हुआ शैक्ष बीच में अन्य धर्मकथी की बातें सुनकर उपशांत होता है। वह जिसकी अभिधारणा कर जाता है, उसीका आभाव्य होता है। इतर अर्थात् अनभिधारयिता में जो उसको प्रव्रजित करता है उसका वह आभाव्य होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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