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________________ कथा परिशिष्ट १०२. उदक दृष्टान्त एक साधु भिक्षा के निमित्त से अन्य गांव जा रहा था। रास्ते में एक आदमी का साथ हो गया। दोनों साथसाथ चले। मार्ग में नदी थी। अन्य मार्ग नहीं था। उसके साथ वह साधु भी नदी पार कर गांव में पहुंच गया। वह आदमी अपनी बहिन के घर चला गया और साधु भिक्षा के लिए चला। अनेक घरों में भिक्षा करता हुआ वह उसी आदमी की बहिन के घर पहुंचा। उसके हाथ गीले थे। वह गीले हाथों से भिक्षा देने के लिए तैयार हुई। साधु ने भिक्षा लेने से इन्कार कर दिया। तब वह आदमी बोला-तुम पाखंडी हो, मायावी हो, धर्मभ्रष्ट हो। नदी पार करने में तो दोष नहीं लगा और गीले हाथ से भिक्षा लेने में दोष है। साधु ने कहा-हम न पाखंडी है और न मायावी। अन्य मार्ग नहीं था इसलिए नदी पार की। जिसे छोड़ा जा सकता है उसे छोड़ देते हैं। गा. ४५७७ वृ. पृ. १२३६ १०३. पिशाच गृह एक किसान ने सुन्दर मकान बनवाया। उसने चिंतन किया कि भोज करने के बाद गृह प्रवेश करेंगे। सारी व्यवस्था हो गई। रात में वाणव्यन्तर देव ने किसान से कहा यदि तुम इस घर में प्रवेश करोगे तो मैं तुम्हारे कुल का उच्छेद कर दूंगा। किसान ने गृह प्रवेश नहीं किया और घर के चारों ओर बाड़ लगा दी। एक दिन वहां साधु आए, उन्होंने किसान से घर की याचना की। किसान ने यथास्थिति बता दी। साधु बोले-यह घर देव परिगृहीत है पर तुम रहने के लिए हमें दे दो। किसान ने साधुओं को घर में रहने की आज्ञा दे दी। साधुओं ने कायोत्सर्ग कर ध्यान कर, देव को आह्वान किया। देव उपस्थित हुआ तब साधुओं ने मकान में रहने की स्वीकृति मांगी। देव ने कहा-आप यहां रह सकते हैं पर ऊपर की मंजिल में मत जाना। उसकी स्वीकृति प्राप्तकर वहां रह गए। फिर अन्य साधुओं के लिए उस ग्राम में रहने की सुविधा हो गई। गा. ४७६८,४७६९ वृ. पृ. १२८१ १०४. अव्याकृत दृष्टान्त राजगृह नगर में एक वणिक् रहता था। वह ऋद्धिमान था। उसने एक अत्यन्त सुन्दर मकान बनवाया। गृह प्रवेश से पूर्व ही उसकी मृत्यु हो गई। धीरे-धीरे पुत्रों के व्यापार में हानि होने लगी। पुत्र वैभव रहित हो गए। इतने बड़े मकान का 'कर' लगता था। पुत्रों ने 'कर' के भय से उसे बन्द कर दिया और छोटी कुटिया में रहने लगे। वह घर साधुओं के रहने के लिए उपयोगी बन गया। गा. ४७७० वृ. पृ. १२८२ १०५. राजकन्या दृष्टान्त पादलिप्त आचार्य ने राजा की बहिन के सदृश एक यन्त्र प्रतिमा बनाई। उस प्रतिमा में चंक्रमण और उन्मेष निमेष की क्षमता थी। उसके हाथ में तालवृन्त का पंखा था। वह आचार्य के सामने प्रस्थापित थी। राजा भी पादलिप्त आचार्य से स्नेह करता था। एक दिन द्वेषवश एक ब्राह्मण ने राजा से कहा-आपकी बहिन आचार्य द्वारा अभिमंत्रित है। राजा को विश्वास नहीं हुआ। ब्राह्मण राजा को अपने साथ ले गया और आचार्य के सम्मुख प्रस्थापित यंत्रमयी प्रतिमा दिखाई। राजा रुष्ट होकर वहां से लौट आया। तब आचार्य ने तत्काल उस प्रतिमा को नष्ट कर विसर्जित कर दिया। राजा का संदेह दूर हो गया। यवन देश में ऐसी प्रतिमाएं प्रचुरता से निर्मित की जाती थी। गा. ४९१५ वृ. पृ. १३१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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