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छठा उद्देशक निष्कारण अवलंबन देता है तो उसे चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष प्राप्त होते हैं। ६१८४.मिच्छत्ते सतिकरणं, विराहणा फास भावसंबंधो।
पडिगमणादी दोसा, भुत्ता-ऽभुत्ते व णेयव्वा॥ निर्ग्रन्थी को अवलंबन देते हुए देखकर कोई मिथ्यात्व को प्राप्त हो सकता है। जो मुनि भुक्तभोगी है उसके स्मृतिकरण और अभुक्तभोगी को कुतूहल होता है। संयमविराधना तथा स्पर्श से भावसंबंध होता है और उसके परिणाम स्वरूप प्रतिगमन आदि दोष होते हैं। ये दोष भुक्त और अभुक्त साधु- साध्वियों के होते हैं। ६१८५.तिविहं च होति विसम, भूमिं सावय मणुस्सविसमं च।
तम्मि वि सो चेव गमो, णावोदग सेय जतणाए॥ विषम के तीन प्रकार हैं-भूमीविषम, श्वापदविषम तथा मनुष्यविषम। भूमीविषम का तात्पर्य है-गढ़ा, पाषाण आदि से आकीर्ण भूभाग। प्रस्तुत में भूमीविषम का प्रसंग है। इसमें भी वही गम-विकल्प है जो दुर्ग विषयक कहा गया है। नौका, उदक तथा पंक में निष्कारण निर्ग्रन्थी को अवलम्बन देने पर वे ही दोष होते हैं। कारणवश यतना से अवलंबन दिया जा सकता है। ६१८६.भूमीए असंपत्तं, पत्तं वा हत्थ-जाणुगादीहिं।
पक्खुलणं णायव्वं, पवडण भूमीय गत्तेहिं॥ प्रस्खलन उसे कहा जाता है जहां से फिसलने पर हाथ, जानु आदि भूमी को प्राप्त न हुए हों या हो गए हों। प्रपतन वह कहलाता है जिसमें सारा शरीर भूमी पर आ गिरता है। ६१८७.अहवा वि दुग्ग विसमे, थद्धं भीतं व गीत थेरो तु।
सिचयंतरेतरं वा, गिण्हतो होति निदोसो॥ अथवा द्वितीय पद में स्तब्ध या भीत निर्ग्रन्थी को दुर्ग या विषम में अवलंबन देता हुआ गीतार्थ तथा स्थविर निर्ग्रन्थ निर्दोष होता है। वह निर्ग्रन्थी वस्त्रान्तररित या अन्यथा भी क्यों न हो। ६१८८.पंको खलु चिक्खल्लो,
आगंतू पयणुओ दुओ पणओ। सो पुण सजलो सेओ,
सीतिज्जति जत्थ दुविहे वी॥ पंक का अर्थ है-चिक्खल। पनक वह है जो आगंतुक है, पतला है तथा द्रवरूप पंक है। जब पंक और पनक-दोनों सजल होते हैं तब उनमें निमज्जन होता है। उसे 'सेक' कहते हैं। ६१८९.पंक-पणएसु नियमा, ओगसणं वुब्भणं सिया सेए।
थिमियम्मि णिमज्जणता, सजले सेए सिया दो वि॥
पंक और पनक-दोनों का नियमतः 'अपकसन' ह्रास होता है। सेक का हरण पानी से होता है। जब वह गाढ़ और आर्द्र होता है तब उसमें निमज्जन होता है। सजल सेक में अपवहन-बहा कर ले जाना तथा निमज्जन-दोनों होते हैं। ६१९०.ओयारण उत्तारण, अत्थुरण ववुग्गहे य सतिकारो।
छेदो व दुवेगयरे, अतिपिल्लण भाव मिच्छत्तं॥ कारण में निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी को नौका में चढ़ाते हुए, उतारते हुए यदि आस्तरण या शरीर को पकड़ता है तो दोनों भुक्तभोगियों के स्मृतिकरण होता है। नख आदि से एक-दूसरे के छेद (घाव) होता है। अतिप्रेरणा से भाव अर्थात् मैथुन की अभिलाषा उत्पन्न हो सकती है। उसे देखकर कोई मिथ्यात्व को प्रास हो जाता है। ६१९१.अंतोजले वि एवं, गुज्झंगप्फास इच्छऽणिच्छंते।
मुच्चेज्ज व आयत्ता, जा होउ करेतु वा हावे॥ जल के भीतर भी उसे अवलंबन देने पर ये ही दोष होते हैं। गुह्यांग के स्पर्श से मोह का उदय होता है। उससे मैथुन की इच्छा होती है। वह चाहे या न चाहे-दोनों ओर दोष होते हैं। वह निर्ग्रन्थ उस निर्ग्रन्थी को जल के मध्य छोड़ देता है जिससे वह साध्वी स्वतंत्र होकर हाव-मुखविकार करती रहे। कारण में अपवादस्वरूप उसे नौका में चढ़ाने, उतारने, आदि यतनापूर्वक कर सकता है। ६१९२.सव्वंगियं तु गहणं, करेहिं अवलंबणेगदेसम्मि।
जह सुत्तं तासु कयं, तहेव वतिणो वि वतिणीए॥ ग्रहण का अर्थ है-सर्वांगीण रूप से, हाथों से पकड़ना। अवलंबन का अर्थ है-शरीर के एक देश-बाहु आदि से ग्रहण करना। ये तीनों सूत्र निर्ग्रन्थियों के लिए किए गए हैं। वैसे ही व्रती को व्रतिनीयां उस परिस्थिति में ग्रहण करती हुईं या अवलंबन देती हुईं मर्यादा का लोप नहीं करतीं। ६१९३.जुगलं गिलाणगं वा, असहुँ अण्णेण वा वि अतरंगं।
गोवालकंचुगादी, सारक्खण णालबद्धादी॥ बाल, वृद्ध, ग्लान, दुर्ग आदि पर जाने में असमर्थ, अन्य कोई जो अशक्त है उसको नालबद्ध अथवा अनालबद्ध साध्वी गोपालकंचुक परिधानयुक्त होकर उसको संरक्षण देती है, उसको ग्रहण करती है या अवलंबन देती है यह विहित है।
खित्तचित्तं निग्गंथिं निग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नाइक्कमइ॥
(सूत्र १०)
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