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________________ = बृहत्कल्पभाष्यम् ६१७७.गिहि अण्णतित्थि पुरिसा, सूत्र वैसे ही वक्तव्य हैं। यदि कोई असंवृत आर्या हो तो इत्थी वि य गिहिणि अण्णतित्थीया। प्रतिगमन आदि दोष होते हैं। संबंधि एतरा वा, अपवादपद में निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी का कंटकोद्धरण प्रागुक्त वइणी एमेव दो एते॥ विधि से कर सकता है। गृहस्थ तथा अन्यतीर्थिक पुरुष-ये दो अथवा गृहस्थस्त्री तथा अन्यतीर्थकी स्त्री ये दो, अथवा संबंधिनी व्रतिनी तथा निग्गंथीअवलंबण-पदं असंबंधिनी व्रतिनी-ये दो। इनमें से कोई द्विक कुशल हो तो आगाढ़ कारण में कराया जा सकता है। निग्गंथे निग्गंथिं दुग्गंसि वा विसमंसि ६१७८.तं पुण सुण्णारणे, दुट्ठारण्णे व अकुसलेहिं वा। वा पव्वयंसि वा पक्खुलमाणिं वा कुसले वा दूरत्थे, ण चएइ पदं पि गंतुं जे॥ पवडमाणिं वा गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे पहले जो कहा गया-साधुओं के अभाव में तो अभाव कब वा नाइक्कमइ॥ होता है, यह बताया जा रहा है। शून्य अरण्य तथा (सूत्र ७) दुष्टअरण्य में साधुओं का अभाव होता है। साधु हैं परंतु कंटकोद्धरण में अकुशल हैं अथवा कुशल साधु दूरस्थ हैं निग्गंथे निग्गंथिं सेयंसि वा पंकसि वा अथवा कंटक से विद्ध पैर वाला मुनि एक पैर भी चल नहीं पणगंसि वा उदगंसि वा ओकसमाणिं वा सकता, ऐसी स्थिति में पूर्वोक्त यतना करणीय है। ओवुज्झमाणिं वा गिण्हमाणे वा ६१७९.परपक्ख पुरिस गिहिणी, अवलंबमाणे वा नाइक्कमइ॥ __ असोय-कुसलाण मोत्तु पडिवक्खे। पुरिस जयंत मणुण्णे, (सूत्र ८) ___ होति सपक्खेतरा वा तू॥ निग्गंथे निग्गंथिं नावं आरुभणमाणिं जो यतमान मनोज्ञ पुरुष हों उनसे कराए, उनके अभाव में वा ओरुभमाणिं वा गिण्हमाणे वा अमनोज्ञ पुरुषों से कराए। यह स्वपक्ष यतना है। परपक्ष में अवलंबमाणे वा नाइक्कमइ॥ गृहस्थ या अन्यतीर्थिक पुरुषों से, उनके अभाव में स्त्रियों से, या अशौचवादी कुशल पुरुषों से कराए। प्रतिपक्ष को छोड़कर (सूत्र ९) अर्थात् शौचवादी अकुशल को छोड़कर। ६१८०.सल्लुद्धर णक्खेण व, अच्छिव वत्थंतरं व इत्थीसु। ६१८२.सो पुण दुग्गे लग्गेज्ज कंटओ लोयणम्मि वा कणुगं। भूमी-कट्ठ-तलोरुसु, काऊण सुसंवुडा दो वि॥ इति दुग्गसुत्तजोगो, थला जलं चेयरे दुविहे ।। __ स्त्री यदि कंटकोद्धरण कर रही हो तो उसकी विधि यह दुर्ग में जाते समय पैर में कंटक या आंख में कणुक लग है-पैरों का स्पर्श न करती हुई शल्योद्धरण से या नखों से सकता है। यह दुर्ग सूत्र के साथ पूर्वसूत्र का योग-संबंध है। कांटे का नीहरण करे। कांटा न निकले तो पैरों को भूमी पर दुर्ग स्थल होता है। उससे आगे जल होता है। अतः दुर्ग सूत्र रख कर या काठ पर या तल पर या ऊरु पर रखकर के अनन्तर ही 'इतर' में अर्थात् जल प्रतिबद्ध दो प्रकार के वस्त्रांतरित होकर कांटा निकाले। संयती और संयत-दोनों सूत्र-पंकविषयक तथा नौविषयक का प्रारंभ किया जाता है। सुसंवृत होकर बैठे। ६१८३.तिविहं च होति दुग्गं, रुक्खे सावय मणुस्सदुग्गं च। ६१८१.एमेव य अच्छिम्मि, चंपादिद्रुतो णवरि नाणत्तं। णिक्कारणम्मि गुरुगा, तत्थ वि आणादिणो दोसा॥ निग्गंथीण तहेव य, वरिं तु असंवुडा काई।। दुर्ग के तीन प्रकार हैं-वृक्षदुर्ग, श्वापददुर्ग और इसी प्रकार आंख में कणिका आदि लग जाने पर सारी मनुष्य-दुर्ग। गहनतम वृक्षों से युक्त दुर्ग वृक्षदुर्ग है। जहां विधि जानें। यहां चंपा नगरी में सुभद्रा का उदाहरण ज्ञातव्य सिंह, व्याघ्र आदि हिंस्र पशुओं का भय हो वह श्वापददुर्ग है। उसमें नानात्व है। साधु के आंख में लगे हुए तृण को और जहां म्लेच्छ, बोधिक आदि स्तेनों का भय हो वह सुभद्रा ने निकाला, वैसे ही साधु के आंख से तृण का मनुष्यदुर्ग है। अपनयन साध्वी कर सकती है। आर्यायों के विषय में भी दो इन तीनों प्रकार के दुर्गों में यदि निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी को www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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