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________________ बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा संख्या विषय सकता। अपवाद में प्रव्राजनीय। ५१००-५१०२ आहार-उपधि और सचित्त विषयक स्तैन्य का अपवाद। ५१०३ हस्ताताल, हस्तालम्ब और अर्थदान-तीनों पाठों का स्वीकरण। ५१०४-५१०६ हस्ताताल का स्वरूप। तद्विषयक प्रायश्चित्त और अपवाद। हस्तालम्ब का स्वरूप। ५१०७,५१०८ विनय की शिक्षा देने के लिए हस्ताताल की पीड़ाकारक क्रिया अनुमत कैसे? शिष्य की जिज्ञासा। आचार्य का समाधान। ५१०९,५११० लौकिक कलाओं-शिल्प, गणित को सीखने वाले शिष्य जैसे गुरुओं के प्रहारों के सहन करते हैं वैसे मुनि भी इष्ट वस्तु की प्राप्ति के लिए गुरु की ताड़ना सहते है। हस्तताल की इच्छा कब? ५११२,५११३ अशिव आदि उपद्रव की उपशांति के लिए आचार्य द्वारा अभिचारुक मंत्रों का प्रयोग। हस्तालम्बदायी को उपस्थापना परीक्षा के पश्चात्। ५११४-५११९ अर्थादान का स्वरूप और उसको समझाने के लिए अवसन्न आचार्य का दृष्टान्त। ५१२० हस्ताताल, हस्तालम्ब और अर्थादान-तीनों में प्रथम दो को छोड़कर अर्थादान में लिंग देने की भजना। ५१२१-५१२३ अर्थादान के रहते हुए देश में लिंग देने का निषेध। कारणस्वरूप क्षेत्र में लिंग देने का अपवाद। ५१२४ साधर्मिक स्तैन्य और अन्य धार्मिक स्तैन्य के प्रायश्चित्त का प्रकार। ५१२५ सामान्य साधु, गणी आदि के लिए आहार स्तैन्य में प्रायश्चित्त के अलग-अलग प्रकार। शिष्य की जिज्ञासा-सूत्र में सामान्यतः अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त का कथन है फिर प्रायश्चित्त की विविधता क्यों? आचार्य का उत्तर। ५१२६ आचार्य और उपाध्याय द्वारा समान अपराध का सेवन करने पर भी प्रायश्चित्त की भिन्नता। ५१२७ उपाध्याय तथा मुनि द्वारा साधर्मिक स्तैन्य आदि का बार-बार प्रतिसेवना करने से आने गाथा संख्या विषय वाला भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्त। ५१२८ अर्थादान क्षेत्रतः समाख्यात है। तद्विषयक विधि। ५१२९-५१३५ अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त किन गुणों से युक्त मुनि को आता है? उस मुनि की विधि और सामाचारी। ५१३६,५१३७ अनवस्थाप्य को वहन करने वाले मुनि के लिए क्या क्या अकल्पनीय ? उनका वर्णन। पव्वज्जादि-अजोग्ग-पदं सूत्र ४ ५१३८ अनवस्थाप्य का अर्थ। पंडक का द्रव्यलिंग और भावलिंग में अस्थापन। ५१३९ बीस प्रकार के मनुष्य अप्रव्राज्य। प्रस्तुत सूत्र में तीन का अधिकार-पंडक, क्लीब और वातिक। ५१४० पृच्छापूर्वक गीतार्थ मुनि ही प्रव्राजना देने का अधिकारी। बिना पूछे प्रायश्चित्त। ५१४१-५१४३ दीक्षार्थी से पूछताछ करने की विधि। लक्षणों से पंडक जानकर उसका परिहार्य। ५१४४-५१४७ पंडक की पहचान के छह लक्षण तथा उनका स्वरूप। तीन प्रकार के वेदों के प्रत्येक के तीन तीन भंग। ५१४८ तीन वेदों के लक्षण तथा प्रत्येक वेद का अपना अपना स्थान को छोड़कर शेष दो वेदों में भी वर्तन। ५१४९ पंडक के दो प्रकार तथा उन दोनों में से उपघात पंडक के दो प्रकार। ५१५०,५१५१ दूषी कौन कहलाता है? दूषी के प्रकारों का स्वरूप। ५१५२,५१५३ वेदोपघात पंडक का स्वरूप तथा उस विषय में हेमकुमार का उदाहरण। ५१५४-५१५६ उपकरणोपघातपंडक का स्वरूप तथा तद्विषयक कपिल का दृष्टान्त, जिसने एक जन्म में तीनों वेदों का अनुभव किया। ५१५७-५१६३ प्रवजित पंडक को पहचानने की चेष्टाएं, क्रियाएं आदि। जानते हुए भी उसको संघ में रखने से लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त। ५१६४ क्लीब का निरुक्त और उसका स्वरूप। क्लीब के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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