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बृहत्कल्पभाष्यम्
५४८४.जो पुण उभयअवत्तो, वट्टावग असइ सो उ उद्दिसई।
सव्वे वि उद्दिसंता, मोत्तूण उद्दिसंति इमे॥ जो वय और श्रुत-दोनों से अव्यक्त है और यदि गच्छ का वर्तापक न हो तो दूसरे आचार्य को उद्दिष्ट करता है। चारों भंगवर्ती यदि सभी अन्य आचार्य को उद्दिष्ट करते हैं तो इन आचार्य को छोड़कर करते हैं। ५४८५.संविग्गमगीयत्थं, असंविग्गं खलु तहेव गीयत्थं। ___ असंविग्गमगीयत्थं, उद्दिसमाणस्स चउगुरुगा।
संविग्न अगीतार्थ, असंविग्न गीतार्थ, असंविग्न अगीतार्थ इन तीनों को आचार्य रूप में उद्दिष्ट करने वाले को चतुर्गुरुक प्रायश्चित्त आता है। ये क्रमशः काल से और तप से तथा तदुभय से गुरुक होते हैं। ५४८६.सत्तरत्तं तवो होइ, तओ छेओ पहावई।
छेदेण छिण्णपरियाए, तओ मूलं तओ दुगं॥ सात रात का तप, फिर छेद, छेद से पर्याय छिन्न होने से फिर मूल और फिर अनवस्थाप्य और पारांचिक। यह जानकर संविग्न गीतार्थ को उद्दिष्ट करना चाहिए। यह प्रायश्चित्तवृद्धि अयोग्य को उद्दिष्ट करने पर होती है। ५४८७.छट्ठाणविरहियं वा, संविग्गं वा वि वयइ गीयत्थं।
चउरो य अणुग्घाया, तत्थ वि आणाइणो दोसा॥ छह स्थानों से विरहित जो संविग्न और गीतार्थ हो, वह यदि काथिक आदि दोष सहित हो, उसको यदि उद्दिष्ट किया जाता है तो चार अनुद्घात तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। ५४८८.छट्ठाणा जा नियगो, तविरहिय काहियाइता चउरो।
ते वि य उद्दिसमाणे, छट्ठाणगयाण जे दोसा॥ छह स्थानों-पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त, यथाच्छंद तथा नित्यवासी-इन से विरहित जो काथिक, प्राश्निक, मामाक तथा सम्प्रसारक इन चारों में से किसी को उद्दिष्ट करता है तो षट्स्थान गत जो दोष होते हैं, वे सारे प्राप्त होते हैं। ५४८९.ओहाविय कालगते, जाधिच्छा ताहि उद्दिसावेइ।
अव्वत्ते तिविहे वी, णियमा पुण संगहट्ठाए। गुरु के अवधावन करने-गृहस्थ हो जाने पर या कालगत हो जाने पर, प्रथम भंग को वर्जित कर जो शेष तीनों भंगों के अनुसार अव्यक्त है, वह जब चाहता है तब अन्य आचार्य को उद्दिष्ट करता है। वह अव्यक्त होने के कारण नियमतः संग्रह
और उपग्रह के लिए ही उद्दिष्ट करता है। १. प्रस्तुत गाथा का तात्पर्य
इन अयोग्य व्यक्तियों को आचार्यरूप में उद्दिष्ट करने पर यह प्रायश्चित्तवृद्धि होती है-प्रथम सप्तरात्र के प्रत्येक दिन चतुर्गुरु, दूसरे सप्तरात्र के प्रत्येक दिन षड्लघु, तीसरे में षड्गुरु, चौथे में चतुर्गुरुकछेद, पांचवें में षड्लघुकछेद, छठे में षड्गुरुकछेद-इस प्रकार बयांलीस
५४९०.ओहाविय ओसन्न, भणइ अणाहा वयं विणा तुज्झे।
कम सीसमसागरिए, दुप्पडियरगं जतो तिण्ह।। अवधावित अथवा अवसन्न गुरु के पैरों में शिर रखकर एकांत में कहे-भंते! तुम्हारे बिना हम अनाथ हो गए हैं। तुम फिर संयम में स्थिर होकर हमें सनाथ करो। शिष्य ने प्रश्न किया गृहस्थीभूत अचारित्री के चरणों में सिर कैसे दिया जाता है? आचार्य कहते हैं ये तीन दुष्प्रतिकर होते हैंमाता-पिता, स्वामी और गुरु। इन तीनों के उपकार का बदला नहीं चुकाया जा सकता। ५४९१.जो जेण जम्मि ठाणम्मि ठाविओ दंसणे व चरणे वा।
सो तं तओ चुतं तम्मि चेव काउं भवे निरिणो॥ जिस आचार्य ने जिस शिष्य को दर्शन या चारित्र-जिस स्थान में स्थापित किया है, उस आचार्य को उन स्थानों से च्युत हुए देखकर उसको पुनः उस स्थान में स्थापित करने से शिष्य उनके ऋण से उऋण हो सकता है।
गणावच्छेइए य इच्छेज्जा अण्णं आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए, नो से कप्पइ गणावच्छेइयत्तं अणिक्खिवेत्ता अण्णं आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए; कप्पइसेगणावच्छेइयत्तं निक्खिवेत्ताअण्णं आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए। नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयंवाअण्णं आयरिय-उवज्झायं उहिसावेत्तए; कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अण्णं आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए। ते य से वियरेज्जा, एवं से कप्पइ अण्णं आयरियउवज्झायं उद्दिसावेत्तए, ते य से नो वियरेज्जा,एवं सेनोकप्पइअण्णं आयरियउवज्झायं उद्दिसावेत्तए, नो से कप्पइ तेसिं कारणं अदीवेत्ताअण्णं आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए; कप्पइसे तेसिं कारणं दीवेत्ता अण्णं आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए॥
(सूत्र २३) दिन व्यतीत हो जाने पर तैयालीसवें दिन मूल, चौवालीसवें दिन अनवस्थाप्य और पैंतालीसवें दिन पारांचिक। अथवा षड्गुरुक तप के पश्चात् पहले ही सप्तरात्र का षड्गुरुकछेद, तदनन्तर मूल, अनवस्थाप्य, पारांचिक-पूर्ववत्। अथवा तप के अनन्तर पंचकादि छेद सात सप्तक दिन का होता है। शेष पूर्ववत्।
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