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चौथा उद्देशक ५४७३.विज्जा-मंत-निमित्ते, हेऊसत्थट्ठ दसणट्ठाए।
__ चरित्तट्ठा पुव्वगमो, अहव इमे हुंति आएसा॥
कोई विद्या, मंत्र, निमित्त तथा हेतुशास्त्र-गोविन्दनियुक्ति आदि के अध्ययन के लिए, दर्शनशास्त्र का अध्ययन करने के लिए जाता है। चारित्र के लिए जाने वाले के लिए ये ही पूर्वोक्त विकल्प हैं। अथवा ये आदेश-प्रकार हैं। ५४७४.आयरिय-उवज्झाए, ओसण्णोहाविते व कालगते।
ओसण्ण छव्विहे खलु, वत्तमवत्तस्स मग्गणया॥ आचार्य अथवा उपाध्याय अवसन्न हो गया, या अवधारित हो गया (गृहस्थ बन गया), या कालगत हो गया। अवसन्न के छह प्रकार हैं-पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त, नित्यवासी तथा यथाच्छंद। उसका जो शिष्य है, वह आचार्यपद योग्य है, वह व्यक्त या अव्यक्त है, उसकी मार्गणा यह है। ५४७५.वत्ते खलु गीयत्थे, अव्वत्ते वएण अहव अगीयत्थे।
वत्तिच्छ सार पेसण, अहवाऽऽसण्णे सयं गमणं॥ व्यक्त-अव्यक्त की चतुर्भंगी यह है१. वय से व्यक्त (सोलह वर्ष का), श्रुत से भी व्यक्त
(गीतार्थ)। २. वय से व्यक्त, श्रुत से अव्यक्त। ३. वय से अव्यक्त श्रुत से व्यक्त। ४. वय और श्रुत-दोनों से अव्यक्त।
प्रथम भगवर्ती शिष्य जो दोनों से व्यक्त है, यह उसकी इच्छा है कि वह अन्य आचार्य को उद्दिष्ट करे या न करे। तब दूरस्थ कोई अवसन्न आचार्य हैं, उनको प्रेरित करने के लिए एक मुनि संघाटक को भेजा जाता है। अथवा वे निकट हों तो आचार्य स्वयं जाकर उनको प्रेरित करे। ५४७६.एगाह पणग पक्खे, चउमासे वरिस जत्थ वा मिलइ।
चोएइ चोयवेइ व, णेच्छंते सयं तु वट्टावे॥ प्रतिदिन या पांच दिनों से या पक्ष में, चातुर्मास में या वर्ष में अथवा जहां समवसरण आदि में मिलते हैं वहां स्वयं उनको प्रेरित करता है, दूसरों से प्रेरित करवाता है, फिर भी यदि वे नहीं चाहते तो स्वयं ही गण की बागडोर संभाले। ५४७७.उद्दिसइ व अन्नदिसं, पयावणट्ठा न संगहट्ठाए।
जइ णाम गारवेण वि, मुएज्ज णिच्चे सयं ठाई॥ अथवा वह उभयव्यक्त अन्य आचार्य को इसलिए उद्दिष्ट करता है कि वह निकटस्थ आचार्य उत्तेजित हो, गण के संग्रह के लिए ऐसा नहीं करता। वह आचार्य सोचता है-'मेरे जीवित रहते ये अपर आचार्य को लाना चाहते हैं तो अच्छा है मैं पार्श्वस्थता को छोड़ दूं।' यदि इस गौरव से भी पार्श्वस्थता को छोड़ता है तो अच्छा है। वह गण के भार को
५६७ लेने का इच्छुक न होते हुए भी स्वयं ही गच्छाधिपति के रूप में संलग्न हो जाता है। ५४७८.सुअवत्तो वतऽवत्तो, भणइ गणं ते ण सारितुं सत्तो।
सारेहि सगणमेयं, अण्णं व वयामो आयरियं॥ जो श्रुत से व्यक्त है परंतु वय से अव्यक्त है, वह आचार्य को कहता है-मैं तुम्हारे गण की सार-संभाल करने में असमर्थ हूं, इसलिए तुम अपने इस गण की देखरेख करो। हम दूसरे आचार्य को उद्दिष्ट करेंगे, उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लेंगे। ५४७९.आयरिय-उवज्झायं, निच्छंते अप्पणा य असमत्थे।
तिगसंवच्छरमद्धं, कुल गण संघे दिसाबंधो॥ ऐसा कहने पर यदि आचार्य अथवा उपाध्याय संयम में रहना नहीं चाहते और वह गण की सार-संभाल करने में असमर्थ हो तो कुलसत्कआचार्य या उपाध्याय को उद्दिष्ट करता है। वहां वह तीन वर्ष रहता है, उसके पश्चात् गणाचार्य को उद्दिष्ट कर एक संवत्सर तथा संघाचार्य का दिग्बंध स्वीकार कर छह मास तक वहीं रहता है। ५४८०.सच्चित्तादि हरंती, कुलं पि नेच्छामो जं कुलं तुब्भं।
बच्चामो अन्नगणं, संघं व तुम जइ न ठासि॥ इसके पश्चात् आचार्य कहता है-तुम्हारे कुल और आचार्य हमारे सचित्त आदि का हरण करते हैं अतः हम कुल भी नहीं चाहते। यदि तुम हरण करने से अब भी विरत नहीं होते हो तो हम अन्य गण या कुल में चले जाते हैं। ५४८१.एवं पि अठायंते, ताहे तू अद्धपंचमे वरिसे।
सयमेव धरेइ गणं, अणुलोमेणं च सारेइ॥ यदि पूर्व आचार्य साढ़े पांच वर्षों तक प्रेरित होते हुए भी नहीं ठहरते तो वह स्वयं ही गण को धारण करे। अनुलोम वचनों से गण की सारणा करे। ५४८२.अहव जइ अत्थि थेरा, सत्ता परियट्टिऊण तं गच्छं।
दुहओवत्तसरिसगो, तस्स उ गमओ मुणेयव्वो॥ अथवा यदि स्थविर हों और वे गण की सार-संभाल करने में समर्थ हों तो वे देखरेख करे और वह सूत्रार्थ वाचना दे। यहां द्विधाव्यक्तसदृश विकल्प जानना चाहिए। ५४८३.वत्तवओ उ अगीओ, जइ थेरा तत्थ केइ गीयत्था।
तेसंतिगे पढंतो, चोएइ स असइ अण्णत्थ॥ जो वय से व्यक्त हो, परंतु अगीतार्थ हो और उस गण के यदि स्थविर कोई गीतार्थ हो तो उनके पास पढ़कर गण की भी देखरेख करता है। वह अवसन्न आचार्य को प्रेरित भी करता है। गीतार्थ स्थविरों के अभाव में गण को अन्यत्र उपसंपन्न करता है।
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