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बृहत्कल्पभाष्यम् ५४७०.एमेव गणावच्छे, गणि-आयरिए वि होइ एमेव।
णवरं पुण णाणत्तं, एते नियमेण गीया उ॥ इसी प्रकार ही गणावच्छेदिक, गणी-उपाध्याय और आचार्य के भी यही विधि है। इसमें नानात्व यह है कि ये सभी नियमतः गीतार्थ होते हैं।
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विहरित्तए; जत्थुत्तरियं धम्मविणयं नो लभेज्जा, एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए॥
(सूत्र २०) आयरिय-उवज्झाए य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, नो कप्पइ आयरियउवज्झायस्स आयरिय-उवज्झायत्तं अनिक्खिवित्ता अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए; कप्पइ आयरिय-उवज्झायस्स आयरियउवज्झायत्तं निक्खिवित्ता अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए; कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। ते य से वियरेज्जा, एवं से कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, ते य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। जत्थुत्तरियं धम्मविणयं लभेज्जा, एवं से कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए; जत्थुत्तरियं धम्मविणयं नो लभेज्जा, एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए॥
(सूत्र २१)
भिक्खू य इच्छेज्जा अण्णं आयरियउवज्झायं उहिसावेत्तए, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अण्णं आयरियउवज्झायं उद्दिसावेत्तए; कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अण्णं आयरियउवज्झायं उद्दिसावेत्तए; ते य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पइ अण्णं आयरिय-उवज्झायं उहिसावेत्तए। नो से कप्पइ तेसिं कारणं अदीवेत्ता अण्णं आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए; कप्पइ से तेसिं कारणं दीवेत्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावेत्तए॥
(सूत्र २२)
५४७१.सुत्तम्मि कड्डियम्मी, आयरि-उज्झाय उदिसाविति।
तिण्हऽट्ठ उद्दिसिज्जा, णाणे तह दंसण चरित्ते॥ सूत्रार्थ के कथन के पश्चात् नियुक्तिविस्तार इस प्रकार है-अभिनव आचार्य और उपाध्याय को इन तीन प्रयोजनों से उद्दिष्ट करे-ज्ञान के लिए, दर्शन के लिए तथा चारित्र के लिए। ५४७२.नाणे महकप्पसुतं,
सिस्सत्ता केइ उवगए देयं। तस्सऽट्ट उद्दिसिज्जा,
सा खलु सेच्छा ण जिणआणा॥ किसी आचार्य के पास महाकल्पश्रुत है। ज्ञानार्थ जाने वाला उसे पढ़ना चाहता है। आचार्य ने यह मर्यादा बना रखी है कि जो शिष्यत्व स्वीकार करेगा, उसी को वह श्रुत दिया जायेगा। उसके लिए उसको उद्दिष्ट करे। आचार्य ने जो मर्यादा की है वह जिनाज्ञा नहीं है, वह स्वेच्छागत है।
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