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बृहत्कल्पभाष्यम्
गाथा संख्या विषय
गाथा संख्या विषय लोक उपहास तथा उनसे लगने वाले दोष और
बताने पर, प्रवर्तिनी द्वारा भिक्षुणियों को और अपवाद।
भिक्षुणियों द्वारा उसे स्वीकार न करने पर ४१११-४१२८ पचपन वर्षों से ऊपर वृद्धा साध्वी को
प्रायश्चित्त के भिन्न-भिन्न प्रकार। अवग्रहान्तक धारण न करने की छूट। भिक्षा ४१५३-४१५८ पुरुष अथवा स्त्री द्वारा आर्याओं को वस्त्र देने निर्गमन के दो प्रकार। दोनों का स्वरूप तथा
और स्वयं वस्त्र लेने पर लगने वाले दोष। उनसे होने वाले गुण-दोष। गुण दोष के विषय में ४१५९ सूत्र की सार्थकता कैसे? योद्धा, मुरुण्ड राजा का हाथी, नर्तकी, नटिनी ४१६०-४१६३ आर्यिकाओं द्वारा वस्त्र का प्रमाण और वर्ण का और केले के तने का उदाहरण।
अवलोकन कर आचार्य और गणिनी को निवेदन। ४१२९-४१३३ धर्षित आर्या के परिपालन की विधि तथा उसकी
उनके ऐसा न करने पर प्रायश्चित्त। स्वनिश्रा से अवर्णवाद-अवहेलना करने वाले को प्रायश्चित्त
भी स्वयं वस्त्र ग्रहण करने पर प्रायश्चित्त। आदि।
४१६४-४१७१ आचार्य द्वारा आर्याओं को उपधि देने से पूर्व ४१३४-४१३७ प्रसूता साध्वी के दो प्रकार। उनके परिपालन की
उसके संस्कार करने तथा देने की विधि। विधि तथा अवज्ञा न करने का निषेध। कुकर्म के ४१७२-४१८२ भद्रक और अभद्रक श्रावकों के पास से वस्त्र लेने विषय में केशि और सत्यकी का उदाहरण।
की विधि। आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, गणी, ४१३८,४१३९ पांच स्थानों से स्त्री पुरुष के साथ असंवास
गणधर तथा गणावच्छेदी के एक-एक के अभाव करती हुई भी गर्भ धारण कर सकती है। उन पांच
में अपर की निश्रा में वस्त्रग्रहण की विधि। स्थानों का स्वरूप।
४१८३ अपवाद की स्थिति में अकेली आर्या को गृहस्थ ४१४०,४१४१ आर्यिका की गर्भ स्थिति में आचार्य द्वारा श्रावकों
की निश्रा में रहने की कल्पनीयता। घर की के घर स्थापित करने की विधि तथा श्रावकों का
निर्दोषता का स्वरूप। दायित्व।
४१८४-४१८७ अकेली साध्वी को शय्यातर की निश्रा में वस्त्र ४१४२-४१४५ प्रतिसेवना आदि का अनुमोदन करने पर क्रमशः
ग्रहण की विधि। प्रायश्चित्त वृद्धि तथा अपत्य के स्तनपान से ४१८८ मैथुन सेवन के लिए वस्त्र दाता के लक्षण। विरत न होने तक तपोर्ह प्रायश्चित्त नहीं।
सूत्र १४ ४१४६,४१४७ प्रतिसेवना करने वाली आर्या की खिंसना करने ४१८९ श्रमणों अथवा मुमुक्षुओं के लिए वस्त्र ग्रहण का वाले मुनि और साध्वी को प्रायश्चित्त तथा
कथन। प्रतिसेवना की आलोचना कर प्रतिनिवृत्त होने ४१९०,४१९१ द्रव्यतः प्रव्रजित की चतुभंगी। द्रव्य निर्ग्रन्थ और वाली आर्यिका की खिंसना करने पर भी
भाव निर्ग्रन्थ का स्वरूप। प्रायश्चित्त।
४१९२ संवास के चार प्रकार। चतुष्टय के आधार पर वत्थगहण-पद
षोडशभंगी का निरूपण। सूत्र १३
४१९३,४१९४'अहवण' का तात्पर्य और उसके अन्तर्भूत होने ४१४८ निर्ग्रन्थी के सचेल होने की नियमा। उसके बिना
वाले सोलह भंगों का चार भंगों में निरूपण। संयम की च्युति। अतः वस्त्रग्रहण की विधि का
मनुष्यणी के साथ संवास करने वाले यक्ष का निर्देश।
दृष्टान्त। ४१४९,४१५० स्वयं आर्या के वस्त्रग्रहण करने का प्रतिषेध और ४१९५ रजोहरण, गोच्छग और प्रतिग्रह का क्रमशः साधुओं द्वारा आर्यिकाओं के वस्त्र लेने की
विमध्य, जघन्य, उत्कृष्ट उपधि के रूप में निरूपण। अनुज्ञा।
कृत्स्न वस्त्र के ग्रहण का तात्पर्य। ४१५१ कारण में स्वयं आर्यिका को किसी की निश्रा में ४१९७-४१९९ प्रव्रजित होने वाला मुमुक्षु का धर्मसंघ के प्रति वस्त्र ग्रहण करने की अनुज्ञा। निश्रा की व्याख्या।
कर्तव्य। असामर्थ्य की स्थिति में यथाक्रम हानि ४१५२ निश्रा के विषय में आचार्य द्वारा प्रवर्तिनी को न
करते हुए शिष्य को गुरु द्वारा सब कुछ देय। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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