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तीसरा उद्देशक
३८३ विराधना हो सकती है। आर्या प्रस्खलित होकर गिर सकती ३७०३.सज्झाए वाघातो, विहारभूमिं व पत्थिय णियत्ता। है। पैरों में स्थाणु और कांटे लग सकते हैं। 'विलिया'
अकरण णासाऽऽरोवण, सुत्तऽत्थ विणा य जे दोसा। लज्जित होकर वह फांसी आदि ले सकती है। वह स्तब्ध हो स्वाध्याय में व्याघात होता है। साध्वियां विहारभूमीसकती है। उस अवस्था में उस संयती को देखकर अन्य स्वाध्याय भूमी के लिए प्रस्थित हैं, परन्तु मुनि को वहां आए आर्याकाओं का भावभेद हो सकता है। ये सारे दोष अपावृत हुए देखकर वे निवृत्त हो जाती हैं, नहीं जाती। सूत्रपौरुषी और आर्या के विषय में हो सकते हैं।
अर्थपौरुषी न करने पर सूत्र और अर्थ का नाश होता है। ३६९९.कालाइक्कमदाणे, गाढतरं होज्ज व पउणेज्जा । उसका यह प्रायश्चित्त है-सूत्र का नाश होने पर चतुर्लघु और
संखोभेण णिरोधो, मुच्छा मरणं व असमाही॥ अर्थ का नाश होने पर चतुर्गुरु। सूत्र और अर्थ के बिना मुनि के कारण ग्लान साध्वी के कालातिक्रमण होने चरण-करण की हानि आदि जो दोष होते हैं, उनसे निष्पन्न से-विलम्ब से भक्तपान देने से ग्लानत्व गाढ़तर हो जाता है। प्रायश्चित्त भी आता है। यह सारा प्रायश्चित्त आगन्तुक और वह साध्वी आरोग्यलाभ नहीं कर पाती। संक्षोभ से संयत को वहन करना होता है। कायिकी और संज्ञा का निरोध होता है। उससे मूर्छा, मृत्यु ३७०४.संजममहातलागस्स णाणवेरग्गसुपडिपुण्णस्स। या असमाधि होती है।
सुद्धपरिणामजुत्तो, तस्स उ अणइक्कमो पाली।। ३७००.पारणगपट्ठिया आणियं च अविगडियऽदंसिय ण भुंजे। संयमरूपी एक महान् तालाब है। वह ज्ञान और वैराग्य से ___ अचियत्त अंतराए, परिताव असम्भवयणे य॥ प्रतिपूर्ण है। वह शुद्ध परिणामों से युक्त है। उसका अतिक्रमण
तपस्विनी आर्या पारणक के लिए प्रस्थित हुई अथवा न करना यह उसकी पालि है। पारणक ले आई। प्रवर्तिनी समागत मुनि के पास बैठी ३७०५.संजमअभिमुहस्स वि, विसुद्धपरिणामभावजुत्तस्स। हैं। उस स्थिति में उनको दिखाए बिना, बिना आलोचना विकहादिसमुप्पण्णो, तस्स उ भेदो मुणेयव्वो॥ किए वह उसका उपभोग नहीं करती। ऐसी स्थिति जो मुनि संयम के अभिमुख है, जो विशुद्धपरिणामभाव से में उसके अप्रीति बढ़ती है, अंतराय होता है, आगाढ़ युक्त है, उसके भी विकथा आदि करने से समुत्पन्न भेद परिताप होता है। वह आगंतुक मुनि के प्रति असभ्यवचन पालिभेद जानना चाहिए। बोलती है-'यह हमारे कार्य में कीलक बनकर कहां से ३७०६.अहवा पालयतीति, उवस्सयं तेण होति सा पाली। आ गया?'
तीसे जायति भेदो, अप्पाण-परोभयसमुत्थो। ३७०१.नोल्लेऊण ण सक्का, अंतो वा होज्ज णत्थि वीयारो। अथवा जो उपाश्रय का पालन-रक्षण करती है, वह है
- संते वा ण पवत्तति, णिच्छुभण विणास गरिहा य॥ पालि। उस पालीभूत (वसतिपालिका) आर्या के मन में संयत
साधु द्वारमूल में स्थित होने के कारण उसका उल्लंघन को देखकर आत्मसमुत्थ, परसमुत्थ या उभयसमुत्थ भेद नहीं किया जा सकता। उपाश्रय के भीतर विचारभूमी है, होता है। परंतु शय्यातर ने उसकी अनुज्ञा नहीं दी है। यदि अनुज्ञा दी ३७०७.मोहतिगिच्छा खमणं, भी हो तो प्रतिदिन संज्ञा-निवृत्ति के लिए बाहर जाने की
करेमि अहमवि य बोहि पुच्छा य। आदत के कारण वहां संज्ञा से निवृत्ति नहीं होती। यदि
मरणं वा अचियत्ता, अननुज्ञात स्थान में संज्ञा-निवृत्ति की जाती है तो शय्यातर
__ अहमवि एमेव संबंधो॥ वहां से निष्काशन भी कर सकता है। उससे विनाश और (मुनि साध्वी के उपाश्रय में गया। वहां वसतिपालिका गर्दा हो सकती है।
अकेली साध्वी थी। मुनि ने पूछा-क्या भिक्षा के लिए नहीं ३७०२.सइकालफेडणे एसणादिपेल्लंतऽपेल्लणे हाणी। गई?' उसने कहा-आज उपवास है। मुनि ने पूछा-क्यों ?
संकायऽभाविएसु य, कुलेसु दोसा चरंतीणं॥ साध्वी बोली-) 'मैं मोह की चिकित्सा के लिए क्षपण कर संयत के आगमन से भिक्षा का सत्काल-देश-काल बीत रही हूं।' मुनि ने भी कहा–'मैं भी मोह-चिकित्सा के लिए जाता है। अवेला में भिक्षा के लिए घूमने पर साध्वियों को क्षपण कर रहा हूं।' मुनि ने पूछा-'आर्ये! आपको बोधि कैसे एषणा की शुद्धि के लिए बहुत प्रयत्न करना होता है। प्रयत्न प्राप्त हुई ?' आर्यिका बोली-'मेरे भर्ती की मृत्यु हो गई। न करने पर हानि होती है। अभावितकुलों में भिक्षा के लिए अथवा मैं उसके लिए प्रिय नहीं रही, इसलिए प्रव्रजित हो अवेला में जाने पर शंका आदि अनेक दोष होते हैं।
गई।' आर्यिका के पूछने पर मुनि ने कहा-'मैं भी अपनी प्रिय
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