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________________ तीसरा उद्देशक मुनि एकत्रित होकर क्षोभ कर सकते हैं, कलह हो सकता है। उनमें से कोई मुनि कहता है- वस्त्रों का विभाग आवलिका अथवा मंडलिका के आधार पर करना चाहिए। किसी लुब्ध मुनि का यह मत होता है कि पाशों को फेंककर वस्त्रों का विभाग करना चाहिए। ४३२०. गेण्हंतु पूया गुरवो जदिट्ठ, अणुहसंवट्टियऽकक्कसंगा, गिण्हंति जं अन्नि न तं सहामो ॥ वस्त्र लाने वाले मुनि कहते हैं-गुरु पूज्य होते हैं। वे अपने मनोनुकूल वस्त्र ग्रहण करते हैं तो वह सत्य है- उचित है, यह हम भी कहते हैं, यह हमें इष्ट भी है। परंतु जिन मुनियों ने वस्त्र लाने का श्रम किया ही नहीं, जिनके अंग-प्रत्यंग अनुष्ण, असंवर्तित और अकर्कश ही बने रहे, ऐसे अन्य मुनि यदि वस्त्र पहले प्राप्त करते हैं तो उसे हम सहन नहीं कर सकते। सच्चं भणामऽम्ह वि एयदिट्ठ । ४३२१. आगंतुगमादीणं, जइ दायव्वाइं तो किणा अम्हे । कम्मारभिक्खुयाणं, गाहिज्जामो गइमसग्धं ॥ यदि हमारे आनीत वस्त्र आप आगंतुक - उपसंपन्न, ग्लान आदि मुनियों को देते हैं तो फिर हम क्यों कर्मकार भिक्षुओं की निन्दनीय गति को ग्रहण करें ? अर्थात् देवद्रोणी वाहक मुनियों की भांति व्यर्थ ही वस्त्रों को लाने का भार क्यों वहन करें ? ४३२२. विरिच्चमाणे अहवा विरिक्के, खोभं विदित्ता बहुगाण तत्थ । ओमेण कारिंति गुरू विरेगं, विमज्झिमो जो व तहिं पडू य ॥ वस्त्रों का विभाग किए जाने पर अथवा कर दिए जाने पर अनेक मुनियों का उस विभाग संबंधी क्षोभ जानकर गुरु पर्यायलघु वाले मुनि से अथवा विमध्यपर्यायवाले मुनि से जो पटु हो, उससे विभाग कराते हैं। Jain Education International ४३२३. आवलियाए जतिद्वं, तं दाऊणं गुरूण तो सेसं । गेहंति कमेणेव उ, उप्परिवाडी न पूयेंति ॥ ४३२४. मंडलियाए विसेसो, गुरुगहिते सेसगा जहावु । भाए समे करेत्ता, गेण्हंति अणंतरं उभओ ।। असंतुष्ट मुनि कहते हैं-आवलिका अथवा मंडलिका से वस्त्रों का विभाग करिए। उसकी विधि यह है- आवलिका अर्थात् ऋजु आयत श्रेणी में वस्त्रों का व्यवस्थापन | ऐसा करने के पश्चात् गुरु को जो इष्ट हो वह श्रेणी गुरु को अर्पित कर शेष यथारात्निक के क्रम से ग्रहण करते हैं। जो ४४५ परिपाटी से विपरीत ग्रहण करते हैं, उनकी प्रशंसा नहीं होती । मंडलिका पद्धति में भी इसी क्रम के अतिरिक्त कुछ विशेष भी है। जैसे- गुरु द्वारा ग्रहण कर लेने पर जो शेष रहा है उसको यथावृद्ध के क्रम से समान भागों में बांटकर, उभय अर्थात् आद्यन्त पार्श्व में अव्यवहित वस्त्रों को ग्रहण करते हैं । इसका तात्पर्य यह है-मंडलिका में वस्त्रों को स्थापित कर सबसे पहले आचार्य ग्रहण करते हैं। पश्चात् शेष मुनियों में जो रत्नाधिक होता है वह मंडलिका के प्रथम श्रेणी में स्थापित वस्त्र लेता है और अवमरात्निक अंतिम श्रेणी में स्थापित वस्त्र ग्रहण करता है। उससे अवमरात्निक मुनि वह प्रथम पंक्ति के अनन्तर पंक्ति के वस्त्र ग्रहण करता है, और उससे लघु उपान्त पंक्ति से। इस क्रम से सभी मुनि तब तक वस्त्र ग्रहण करते हैं जब तक मंडलिका समाप्त नहीं हो जाती । ४३२५. जइ ताव दलंतऽगालिणो, धम्माऽधम्मविसेसबाहिला । . बहुसंजयविंदमज्झके, उकलणे सि किमेव मुच्छितो ॥ इस विभाजन की पद्धति को भी यदि कोई नहीं मानता तो उसे कहना चाहिए- यदि धर्माधर्म को विशेष नहीं जानने वाले गृहस्थ भी मुनियों को वस्त्र देते हैं तो अनेक साधुओं के समूह के मध्य तुम अकेले ही उपकरणों में इतने क्यों मूच्छित हो रहे हो ? ४३२६. अज्जो ! तुमं चेव करेहि भागे, ततो णु घेच्छामो जक्कमेणं । गिण्हाहि वा जं तुह एत्थ इट्ठ, For Private & Personal Use Only विणासधम्मसु हि किं ममत्तं ॥ अच्छा तो वत्स! तुम ही इन वस्त्रों का विभाग करो, हम यथाक्रम ग्रहण कर लेंगे। अथवा इन वस्त्रों में से तुम्हें जो इष्ट हों, उन्हें तुम ग्रहण कर लो। इन विनाशशील वस्त्रों के प्रति ममत्व क्यों कर रहे हो ? ४३२७. तह वि अठियस्स दाउं, विगिंचणोवट्ठिए खरंटणया । अक्खेसु होंति गुरुगा, लहुगा सेसेसु ठाणेसु ॥ इतना कहने पर भी यदि वह शांत नहीं होता है तो उसे अभिरुचित वस्त्र देकर उसका गण से संबंधविच्छेद कर दे। फिर भी यदि वह कहे-आगे से मैं ऐसा नहीं करूंगा, तब उसकी खरंटना करे, उसकी भर्त्सना करे। जो ऐसा कहे कि पाशे फेंककर विभाजन करे, उसे चतुर्गुरु का और शेष विधियों का परामर्श देने वालों को चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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