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________________ ४४६ ४३२८. हिरन - दारं पसु - पेसवग्गं, जदा व उज्झित्तु दमे ठितो सि । किलेसलद्धेसु इमेसु गेही, जुत्ता न कत्तुं तव खिंसणेवं ॥ उस मुनि की खरंटना करते हुए कहे वत्स तुम जब दम-संयम में स्थित हुए तब हिरण्य, सुवर्ण, पशु, प्रेष्यकर्मकर वर्ग को छोड़कर दीक्षित हुए थे। आज इन कष्ट से प्राप्त वस्त्रों में गृद्ध होना उपयुक्त नहीं है । ४३२९. सम्मं विदित्ता समुवद्वियं तु, थेरा सि तं चैव कदाइ देज्जा । अनेसि गाहे बहुदोसले वा छोढूण तत्व करिति भाए ॥ वह मुनि पुनः मैं ऐसा नहीं करूंगा, इस प्रकार कहकर उपस्थित हुआ। उसे सम्यग् जानकर आचार्य उसको कदाचित् वे इष्ट वस्त्र दे दें। किन्तु उन वस्त्रों के प्रति अन्य मुनियों का भी आकर्षण है तथा जिसे वे वस्त्र दिए जा रहे हैं। वह मुनि दोषबहुल है, द्वेषबहुल है अतः उसे वे वस्त्र देने पर अन्य मुनियों में अप्रीति हो सकती है इसलिए उन वस्त्रों को अन्य वस्त्रों के मध्य मिलाकर समविभाग कर लेते हैं। ४३३०. खमए' लढूण अंबले, दाउ गुलूण य सो बलिए । बेह गुलुं एमेव सेसए, देह जईण गुलूहिं बुच्चई ॥ ४३३१. सयमेव य देहि अंबले, तव जे लोयइ इत्थ संजए । इइ छंदिय पेसिओ तहिं खमओ देह लिसीण अंबले ॥ अब क्षपक द्वारा लाए गए वस्त्रों के विभाजन की विधि-एक क्षपक को वस्त्र प्राप्त हुए। उसने उन वस्त्रों में से उत्तम वस्त्र गुरु को समर्पित कर कहा गुरुदेव । शेष वस्त्रों को आप अन्य मुनियों को दें। गुरु कहते हैं तुम स्वयं वस्त्रों को उन मुनियों को दो जो तुम्हें वस्त्र देने योग्य लगें गुरु के इस अभिप्राय से प्रेरित वह क्षपक मुनियों को वस्त्र प्रदान करता है ये दोनों गायाएं मागधभाषा के लक्षण के अनुसार 'र' के स्थान पर 'लकार' का आदेश हुआ है। जैसे-अंबले, गुलूण, गुलुं आदि आदि ।) ४३३२. खमरण आणियाणं दिज्जंतेगस्स वारणावयणं । गहणं तुमं न याणसि, वंदिय पुच्छा तओ कहणं ॥ क्षपक द्वारा आनीत तथा उसी के द्वारा दीयमान वस्त्रों को देखकर कोई एक मुनि वारणा वचन कहता है कि कोई मुनि वस्त्र न लें। क्षपक पूछता है क्यों ? तब वह कहता है - क्षपक ! तुम नहीं जानते कि वस्त्र कैसे ग्रहण किया जाता है ? क्षपक बोला- जानता हूं। उसने पूछा- कैसे ? क्षपक ने १. अभिषेक सूत्रार्थ तदुभयोपेत आचार्यपदस्थापनाहः । Jain Education International बृहत्कल्पभाष्यम् कहा- पहले वंदना कर फिर पूछना चाहिए। तब उस प्रश्नकर्त्ता ने क्षपक को बंदना कर पूछा तब क्षपक ने कहा४३३३.तिविहं च होइ गहणं, सच्चित्ताऽचित्त मीसगं चेव । एएसिं नाणत्तं, बोच्छामि अडाणुपुब्बीए ॥ ग्रहण तीन प्रकार का होता है सचित्त का ग्रहण, अचित का ग्रहण और मिश्र का ग्रहण । इनमें भी नानात्व है, उसे मैं यथानुपूर्वी कहूंगा। ४३३४. सच्चित्तं पुण दुविहं, पुरिसाणं चेव तह य इत्थीणं । एक्केकं पि य इतो, पंचविहं होइ नायव्वं ॥ सचित्तग्रहण दो प्रकार का है-पुरुषों का तथा स्त्रियों का । मूलमेव की अपेक्षा से दोनों के पांच-पांच प्रकार होते हैं। ४३३५. उवगाऽगणि तेणोमे, अच्छाण गिलाण सावय पट्टे । तित्थाणुसज्जणाए, अइसेसिगमुद्धरे विहिणा ॥ आचार्य आदि जलप्रवाह में बहे जा रहे हैं, नगरदाह या अग्नि में जलने की संभावना है, अपहरण करने वाले चोरों का भय है, दुर्भिक्ष है, अध्वा मार्ग में फंस गए हों, ग्लान हो गए हों, श्वापदों द्वारा घिर गए हों, राजा द्वारा प्रद्विष्ट हो गए हो इनमें से जो अतिशायी हो, जो तीर्थ की अव्यवच्छित्ति में समर्थ हो उसका विधिपूर्वक उद्धार करना चाहिए, बचाना चाहिए। ४३३६. आयरिए अभिसेगे, भिक्खु खुडे तहेव थेरे य गहणं तेसिंइणमो, संजोगक (ग) मं तु वोच्छामि ॥ पुरुषों के ये पांच प्रकार हैं- आचार्य, अभिषेक, भिक्षु, क्षुल्लक और स्थविर इन पांचों का ग्रहण (उद्धरण) इस संयोगगम- संयोग के प्रकारों से करना चाहिए। उनको मैं आगे कहूंगा। ४३३७. सव्वे वि तारणिज्जा, संदेहाओ परक्कमे संते। एक्क्कं अवणिज्जा, जाव गुरू तत्थिमो भेदो ॥ पराक्रम होने पर जलप्रवाह आदि संदेहों से सभी तारणीय हैं। यदि उतना पराक्रम न हो तो स्थविर के सिवाय चार, उसमें भी अशक्त हो तो क्षुल्लक- स्थविर के सिवाय तीन, उतना भी पराक्रम न हो तो आचार्य और अभिषेक तारणीय हैं, उतना भी पराक्रम न हो तो आचार्य तारणीय हैं। अर्थात् एक-एक का अपनयन करते हुए गुरू पर्यन्त ऐसा करे । उसमें यह भेद होता है। ४३३८. तरुणे निप्पन्न परिवारे, सलद्धिए जे य होति अब्भासे । अभिसेगम्मि य चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा ॥ यदि दो आचार्य हों, एक तरुण और दूसरा स्थविर । शक्ति हो तो दोनों तारणीय हैं, अन्यथा तरुण तारणीय है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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