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________________ ४४४ मध्यम मासिक तथा उत्कृष्टतः चतुर्लघु अथवा नवक अर्थात् अनवस्थाप्य। यदि वह क्षेत्र सांभोगिक सामान्य हो तो वहां वस्त्रग्रहण की वही विधि है जो एक गच्छ में होती है। ४३१२.अमणुण्णकुलविरेगे, साही पडिवसभ-मूलगामे य। अहवा जो जं लाभी, ठायंति जधासमाधीए॥ जो क्षेत्र असांभोगिक मुनियों के साथ में हो वहां कुलों का विभाजन करे, साहिका अर्थात् गृहपंक्तियों का अथवा प्रतिवृषभग्राम और मूलग्राम का विभाजन करे अथवा जो जिसको लाभ हो वह उसको ग्रहण करे। इनमें से कोई एक व्यवस्था को स्थापित कर यथासमाधि निवास करे। ४३१३.वत्थेहिं आणितेहिं, देति अहारातिणिं तहिं वसभा। अदाणे गुरुणो लहुगा, सेसे लहुओ इमे होति॥ वस्त्रों को ले आने पर वृषभ मुनि यथारानिकों के क्रम से उन वस्त्रों को देते हैं। यदि उन वस्त्रों में से गुरु को पहले वस्त्र नहीं देते हैं तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है, शेष वस्त्रों को यथारात्निक के क्रम से न देने पर लघुमास का प्रायश्चित्त विहित है। रत्नाधिक ये आगे कहे जाने वाले होते हैं। ४३१४.विदुक्खमा जे य मणाणुकूला, जे योवजुज्जति असंथरते। गुरुस्स साणुग्गहमप्पिणित्ता, भाएंति सेसाणि उ झंझहीणा॥ वृषभ मुनि जानते हैं कि कौनसे वस्त्र दृढ़ हैं, मनोनकूल हैं, कौन से वस्त्र वस्त्राभाव वाले गच्छ में उपयोग में आ सकते हैं चाहे वे वस्त्र गुरु द्वारा उपभुक्त भी क्यों न हों। वे वस्त्र गुरु के सानुग्रह से उन मुनियों को अर्पित कर देते हैं। शेष वस्त्रों को यथारात्निक विभाजित कर देने से कलह आदि नहीं होता। ४३१५.उवसंपज्ज गिलाणे, परित्त सुत सोअव्वए य जातीय। तव भासा लद्धीए, ओमे दुविहस्स अरिहा उ॥ रत्नाधिक ये माने जाते हैं-उपसंपन्न, ग्लान, परीत्त- परिमित उपधि वाला, सुत-बहुश्रुत, श्रोतव्य-जो व्याख्यान- मंडली में सूत्रार्थ के सुनने में ज्येष्ठ माना जाता है, जातिस्थविर, तपस्वी, अभाषिक उस देश की भाषा से अनभिज्ञ, वस्त्र प्राप्ति की लब्धि से संपन्न, पर्यायस्थविर तथा ओम-अवमरत्नाधिक ये सब मुनि यथाक्रम दोनों प्रकार =बृहत्कल्पभाष्यम् की उपधि-ओघउपधि और औपग्रहिकउपधि के योग्य माने जाते हैं। ४३१६.एएसि परूवणया, जा य विणा तेहिं होति परिहाणी। अहवा एक्केक्कस्स उ, अडोकंतीक्कमो होति॥ इनकी प्ररूपणा-व्याख्या की जा चुकी है। वस्त्राभाव के कारण इनके जो संयमविराधना आदि होती है, उससे निष्पन्न प्रायश्चित्त आता है। अथवा उपसंपन्न आदि एक-एक को अ पक्रांतिक्रम से वस्त्र देना चाहिए। वह इस प्रकार है४३१७.उवसंपज्ज गिलाणो, अगिलाणो वा वि दोण्णि वि गिलाणा। तत्थ वि य जो परित्तो, एस गमो सेसगेसुं पि॥ उपसंपन्न दो प्रकार के होते हैं-ग्लान और अग्लान। ग्लान को पहले देना चाहिए। दोनों ग्लान हों तो परीत्त-परिमित उपधि वाले को पहले देना चाहिए। यही प्रकार शेष के विषय में जानना चाहिए। जैसे-दोनों परीत्तोपधि अथवा अपरीत्तोपधि हों तो बहुश्रुत को देना चाहिए। दोनों बहुश्रुत हों तो चिन्तनिकारक को (अर्थात् श्रोतव्य को), दोनों चिन्तनिकारक हों तो जातिस्थविर को। दोनों जातिस्थविर हों तो तपस्वी को, दोनों तपस्वी हों तो अभाषिक को, दोनों अभाषिक हों तो लब्धिमान् को देना चाहिए। ४३१८.आयरिए य गिलाणे, परित्त पूया पवत्ति थेर गणी। ___ सुत भासा लद्धीए, ओमे परियागरातिणिए। पहले आचार्य को वस्त्र देकर पश्चात् ग्लान को देना चाहिए। तत्पश्चात् परीत्त उपधिवाले को, फिर पूजनाह' को (उपाध्याय तथा गुरु संबंधी पिता, चाचा आदि), प्रवर्ती, गणावच्छेदी, श्रुतसंपन्न, अभाषिक और लब्धिसंपन्न-इनको यथाक्रम देना चाहिए। अर्द्धापक्रान्तिचारणिका करनी चाहिए। तत्पश्चात् पर्यायस्थविर को, फिर अवमरात्निक को यथाक्रम देना चाहिए। यह विधि संघाटक द्वारा आनीत वस्त्रों के लिए है। ४३१९.णेगेहिं आणियाणं, परित्त परियाग खुभिय पिंडेता। आवलिया मंडलिया, लुद्धस्स य सम्मता अक्खा। अनेक साधुओं द्वारा आनीत वस्त्रों के विभाजन की विधि यह है-आचार्य आदि के क्रम से परीत्तोपधि तक देकर न घूमने वाले पर्यायस्थविरों को देना चाहिए। वस्त्र लाने वाले कल असेल (ख) पूयणारिहस्स उवज्झायस्स-चूर्णि, विशेषचूर्णि। १.(क) अधवा अण्णा विइमा, अधरातिणियाएहोति परिवाडी। आयरिए य गिलाणे, परित्त पुज्जे गुरूणं च ।। पूताडायरियपिमाती, ततो पवत्ती य थेरगण गच्छे। सुत-भासा, लद्धीए, तोमे परिआगरायणिए।। (वृ. पृ. १९६९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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